ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 38
ऋषिः - ब्रह्मातिथिः काण्वः
देवता - वैद्यस्य कशोर्दानस्तुतिः
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
यो मे॒ हिर॑ण्यसंदृशो॒ दश॒ राज्ञो॒ अमं॑हत । अ॒ध॒स्प॒दा इच्चै॒द्यस्य॑ कृ॒ष्टय॑श्चर्म॒म्ना अ॒भितो॒ जना॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयः । मे॒ । हिर॑ण्यऽसन्दृशः । दश॑ । राज्ञः॒ । अमं॑हत । अ॒धः॒ऽप॒दाः । इत् । चै॒द्यस्य॑ । कृ॒ष्टयः॑ । च॒र्म॒ऽम्नाः । अ॒भितः॑ । जनाः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो मे हिरण्यसंदृशो दश राज्ञो अमंहत । अधस्पदा इच्चैद्यस्य कृष्टयश्चर्मम्ना अभितो जना: ॥
स्वर रहित पद पाठयः । मे । हिरण्यऽसन्दृशः । दश । राज्ञः । अमंहत । अधःऽपदाः । इत् । चैद्यस्य । कृष्टयः । चर्मऽम्नाः । अभितः । जनाः ॥ ८.५.३८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 38
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(यः) यः शासकः (मे) मह्यम् (हिरण्यसंदृशः) हिरण्यसदृशदर्शनीयान् (दश, राज्ञः) दश नृपान् (अमंहत) मह्यं दत्तवान् (चैद्यस्य) ज्ञानयोगिनः (कृष्टयः) सर्वे कर्षकाः शत्रवः (अधस्पदाः, इत्) पादयोः अधस्तादेव (जनाः) तस्य भटाश्च (अभितः) सर्वत्र (चर्मम्नाः) कवचिनः ॥३८॥
विषयः
विवेकवर्णनमाह ।
पदार्थः
यः कशुर्विवेकः । मे=मह्यम् । हिरण्यसंदृशः=विषयान् हरन्ति ये ते हिरण्याः । यद्वा । ह्रियन्ते विषया यैस्ते हिरण्या हर्तारः । संदृश्यन्ते ज्ञायन्ते विषया यैस्ते संदृशः=सम्यग्द्रष्टारः । हिरण्याश्च ते संदृशश्चेति हिरण्यसंदृशः । दश । राज्ञः=राजन्ते शोभन्त इति राजानस्तान् इन्द्रियलक्षणान् । अमंहत=ददाति । ननु प्रागपि विवेकोत्पत्तेर्दशेन्द्रियाणि विद्यन्त एव । सत्यम् । जाते विवेक इन्द्रियाणामिन्द्रियत्वं प्रतिभातीति तथोक्तम् । यद्वा । विवेकः खलु दश दशराज्ञोऽधीनात् कृत्वा मह्यं ददाति । दशराजान इदानीं ममाधीना जाता इति विवेकस्यैव प्रतापः । ननु कथं विवेक एवं करोतीति ब्रूते−चैद्यस्य=चेदिभ्यः शिक्षितेभ्य इन्द्रियेभ्यो जातश्चैद्यो विवेकस्तस्य । इद्=एव । कृष्टयः=प्रजाः । अधस्पदाः=पादयोरधस्ताद् वर्तन्ते । पुनः । तस्य सर्वे जनाः । चर्मम्नाः=चर्ममयस्य कवचादेर्धारणे कृताभ्यासाः । अभितः=सर्वतः पराभवन्ति ॥३८ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(यः) जिस शासक ने (मे) मुझे (हिरण्यसंदृशः) हिरण्यसदृश तेजवाले (दश, राज्ञः) दश राजाओं को (अमंहत) दिया (चैद्यस्य) जिस ज्ञानयोगी के (कृष्टयः) सब शत्रु (अधस्पदाः, इत्) पैर के नीचे ही हैं (जनाः) उसके भट (अभितः) सर्वत्र (चर्मम्नाः) कवचबद्ध रहते हैं ॥३८॥
भावार्थ
हे शत्रुओं को तपानेवाले, हे भटमानी योद्धाओं पर विजय प्राप्त करनेवाले ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! आप तेजस्वी दश राजा मुझको दें अर्थात् दश राजाओं का मुझको शासक बनावें, जिससे मैं ऐश्वर्य्यसम्पन्न होकर अपने यज्ञ को पूर्ण करूँ, यह यजमान की ओर से उक्ति है ॥३८॥
विषय
इससे विवेक का वर्णन दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(यः) जो विवेकाख्य कशु (मे) मुझको (हिरण्यसंदृशः) जिनसे विषयों का हरण और अच्छे प्रकार ज्ञान होता है, ऐसे (दश) दश (राज्ञः) दीप्तिमान् इन्द्रियों को (अमंहत) देता है । यद्वा (हिरण्यसंदृशः) सुवर्ण के समान देदीप्यमान (दश+राज्ञः) दश राजाओं को मेरे अधीन करके (मे) मुझको (यः) जो विवेक (अमंहत) देता है, उस विवेक की अधीनता में सब हैं, यह आगे कहा जायेगा, राजाओं का विजय करना भी विवेक का ही प्रधान काम है । क्योंकर विवेक ऐसा करता है, इस पर कहते हैं−(चैद्यस्य) उस विवेक के (इत्) ही (अधस्पदाः) पैर के नीचे (कृष्टयः) सर्व मनुष्य हैं और उसी की अधीनता में (चर्मम्नाः) कवचादि धारण और अभ्यास में निपुण (जनाः) सर्वजन (अभितः) चारों ओर विद्यमान रहते हैं ॥३८ ॥
भावार्थ
विवेक के उत्पन्न होने से इन्द्रियों का इन्द्रियत्व प्रतीत होता है । हे मनुष्यों ! विवेक के ही अधीन सब जन हैं, उसी की उपासना करो ॥३८ ॥
विषय
वैद्य प्रभु के दान और उसको अध्यात्म व्याख्या
भावार्थ
( यः ) जो बड़ा राजा वा प्रभु (मे) मुझे (हिरण्य-संदृशः) सुवर्ण या सूर्य के समान दीखने वाले वा हित और रमणीय तत्व ज्ञान को देखने वाले सम्यक् दर्शी ( दश राज्ञः ) दसों तेजस्वी, राजसभासदों को ( मे ) मेरे हितार्थं ( अमंहत ) राष्ट्र को प्रदान करता है उस ( चैद्यस्य ) ज्ञानी, विद्वानों में सर्वोत्तम पुरुष के ( अधः-पदाः ) अधीन ( कृष्टयः ) कृषक, शत्रुपीड़क जन, खड्ग और ( अभितः ) उसके चारों ओर ( चर्मम्नाः जनाः ) चर्म, खड्ग आदि का अभ्यास करने वाले वीर पुरुष (इत्) अवश्य रहते हैं । ( २ ) इसी प्रकार प्रभु परमेश्वर सब विद्वान् ज्ञानी जीवों में ज्यापक होने से ‘चैद्य’ है सब जीव कृष्ट भूमियें अन्न सम्पदादिवत् उत्पन्न होने वाले होने से 'कृष्टि', जन्म लेने से 'जन' और चर्मवेष्टित देह को बार २ लेने से वा चर्मवेष्टित देह में कर्मों और ज्ञानों का पुनः २ अभ्यास करने वाले होने से जीव 'चर्मन्न' हैं। वे उसके ही अधीन रहते हैं। वह प्रभु मुझ जीवगण को दस हित रमणीय ज्ञानप्रद दस तेजोयुक्त प्राणों, इन्द्रियों को प्रदान करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
दस राजाओं की प्राप्ति [राजा प्राण]
पदार्थ
[१] (यः) = जो प्रभु (मे) मेरे लिये (दश) = दस (हिरण्यसन्दृशः) = स्वर्ण के समान देदीप्यमान, तेजस्वी (राज्ञः) = जीवन को व्यवस्थित [regulated] करनेवाले, जीवन के शासक प्राणों को अमंहत देते हैं। (इत्) = निश्चय से उस (चैद्यस्य) = [चित् एव चैद्यः] सर्वज्ञ प्रभु के (कृष्टयः) = सब मनुष्य (अधस्पदाः) = पावों के नीचे हैं, अर्थात् उसके अधीन हैं, उसी के शासन में चल रहे हैं। [२] सामान्यतः (अभितः) = सब ओर (जनाः) = लोग (चर्मम्नाः) = [म्ना अभ्यासे] चर्मवेष्टित इस देह को बार-बार लेनेवाले हैं। ये देह प्रभु की कर्मव्यवस्था के अनुसार ही इन लोगों को लेने पड़ते हैं। जब कभी प्रभु का साक्षात्कार होता है, तभी यह देह बन्धन समाप्त होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें दश प्राणों को प्राप्त कराते हैं। वे सर्वज्ञ प्रभु सब जीवों को अपनी आधीनता में ले चल रहे हैं। जब तक प्रभु दर्शन नहीं होता, तब तक बारम्बार यह शरीर लेना ही पड़ता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Similarly that ruler knew who gave me ten estates of real beauty and value like gold. All people are under control of the wise ruler and men in armour stand round in readiness to serve and obey.
मराठी (1)
भावार्थ
हे शत्रूंना तापविणाऱ्या! हे लढणाऱ्या योद्ध्यावर विजय प्राप्त करणाऱ्या ज्ञानयोगी व कर्मयोगी! तुम्ही तेजस्वी दहा राजे मला द्या. अर्थात दहा राजांनी मला शासक बनवावे ज्यामुळे मी ऐश्वर्यसंपन्न व्हावे व आपला यज्ञ पूर्ण करावा ही यजमानोक्ती आहे. ॥३८॥
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