ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 21
ऋषिः - ब्रह्मातिथिः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
उ॒त नो॑ दि॒व्या इष॑ उ॒त सिन्धूँ॑रहर्विदा । अप॒ द्वारे॑व वर्षथः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । नः॒ । दि॒व्याः । इषः॑ । उ॒त । सिन्धू॑न् । अ॒हः॒ऽवि॒दा॒ । अप॑ । द्वारा॑ऽइव । व॒र्ष॒थः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत नो दिव्या इष उत सिन्धूँरहर्विदा । अप द्वारेव वर्षथः ॥
स्वर रहित पद पाठउत । नः । दिव्याः । इषः । उत । सिन्धून् । अहःऽविदा । अप । द्वाराऽइव । वर्षथः ॥ ८.५.२१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 21
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(अहर्विदा) हे प्रातःस्मरणीयौ ! (उत) अथ च (नः) अस्मभ्यं (दिव्या, इषः) दिव्यानिष्टपदार्थान् (उत) अथ (सिन्धून्) कुल्याः (द्वारा, इव) द्वारस्था इव (अप, वर्षथः) उत्पादयतम् ॥२१॥
विषयः
सदान्नजलप्रबन्धं कुर्य्यादिति दर्शयति ।
पदार्थः
हे अहर्विदा=अहानि प्रजानां दैनिककर्माणि वित्तो यौ ता अहर्विदौ राजानौ । उतापि च । नोऽस्मदर्थम् । दिव्याः=हितसाधिनीः । इषः=अन्नादिसम्पत्तीः । उत सिन्धून्=स्यन्दनशीलानि जलानि च । द्वारा इव=देवखातादिद्वारया । अपवर्षथः=सिञ्चथः ॥२१ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(अहर्विदा) हे प्रातःस्मरणीय ! (नः) हमारे लिये (दिव्या, इषः) दिव्य इष्ट पदार्थ (उत्) और (सिन्धून्) कृत्रिम नदियों=नहरों को (द्वारा इव) द्वार पर प्राप्त होने के समान (अप, वर्षथः) उत्पन्न करें ॥२१॥
भावार्थ
हे प्रातःस्मरणीय ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! हमारे लिये उत्तमोत्तम पदार्थ प्रदान करें, जिनके सेवन से विद्या, बल तथा बुद्धि की वृद्धि हो। हे भगवन् ! हमारे लिये नहरों का सुप्रबन्ध कीजिये, जिससे कृषि द्वारा अन्न अधिकता से उत्पन्न हो तथा जलसम्बन्धी अन्य कार्यों में सुविधा हो अर्थात् मनुष्य तथा पशु अन्न और जल से सदा संतुष्ट रहें, ऐसी कृपा करें ॥२१॥
विषय
सदा अन्न और जल का प्रबन्ध करे, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(अहर्विदा) हे प्रजाओं के दैनिक कर्मों के ज्ञाता राजन् तथा अमात्य ! आप दोनों (नः) हम लोगों के लिये (दिव्याः) अच्छी-२ हितकारी (इषः) अन्नादि सम्पत्तियों को (द्वारा+इव) शकटादि द्वारा और (सिन्धून्) प्रवहणशील जलों को (द्वारा+इव) नहरों व नलों के द्वारा (अप+वर्षथः) वर्षा किया करें ॥२१ ॥
भावार्थ
राजवर्ग को उचित है कि देश में अन्नों का अभाव न होने देवें । कृषि और जल का बहुत अच्छा प्रबन्ध करें ॥२१ ॥
विषय
उषा और अश्वियुगल। गृहलक्ष्मी उषा देवी। जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों को गृहस्थोचित उपदेश। वीर विद्वान् एवं राजा और अमात्य-राजावत् युगल जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (अहर्विदा) दिन के समस्त कृत्यों को रीति से जानने वाले प्रधान और गौण जनो ! आप दोनों ( नः ) हमारे लिये ( दिव्याः इषः ) उत्तम २ अन्न और विजयोद्योगिनी सेनाओं को ( उत ) और ( सिन्धून् ) बहने वाली जल धाराओं और वेगवान् अश्वों को ( द्वारा इव ) उत्तम साधनों, द्वारों और मार्गों से ( अप वर्षथः ) दूर तक वर्षाओ, पहुंचाओ और लेजाओ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
दिव्य प्रेरणायें व ज्ञान प्रवाह
पदार्थ
[१] हे (अहिर्विदा) = अज्ञानान्धकार को दूर करके प्रकाश को प्राप्त करानेवाले प्राणापानो! (उत) = और (नः) = हमारे लिये (दिव्याः इषः) = प्रभु से दी जानेवाली दिव्य प्रेरणाओं को (वर्षथः) = बरसाओ । हम सदा अपने शुद्ध हृदयों में प्रभु की प्रेरणाओं को सुननेवाले बनें। [२] (उत) = और द्वारा - सब इन्द्रिय द्वारों को अप इव वासना विनाश के द्वारा अपावृत [खोल] करके (सिन्धून्) = ज्ञानजलों का, ज्ञान-प्रवाहों का (वर्षथः) = वर्षण करो।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से हमें दिव्य-प्रेरणायें शुद्ध हृदयों में सुन पड़ें तथा इन्द्रियों के विषय व्यावृत्त होने से हम ज्ञान प्रवाहों को अपने में प्रवाहित कर पायें।
इंग्लिश (1)
Meaning
And, O harbingers of a new day, while you bring us heavenly food and energy in plenty, open the floods of streams and rivers and control the flow as by doors.
मराठी (1)
भावार्थ
हे प्रात:स्मरणीय ज्ञानयोगी व कर्मयोगी! आम्हाला उत्तमोत्तम पदार्थ द्या. ज्यांच्या सेवनाने विद्या, बल व बुद्धीची वृद्धी व्हावी. हे भगवान! आमच्यासाठी कालव्याची व्यवस्था करा. ज्यामुळे कृषिद्वारे अन्न अधिक उत्पन्न व्हावे व जलासंबंधी इतर कार्यात सुविधा व्हावी. अर्थात् माणूस व पशू अन्न व जलाने सदैव संतुष्ट असावेत अशी कृपा करा. ॥२१॥
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