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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
    ऋषिः - ब्रह्मातिथिः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ता सु॑दे॒वाय॑ दा॒शुषे॑ सुमे॒धामवि॑तारिणीम् । घृ॒तैर्गव्यू॑तिमुक्षतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । सु॒ऽदे॒वाय॑ । दा॒शुषे॑ । सु॒ऽमे॒धाम् । अवि॑ऽतारिणीम् । घृ॒तैः । गव्यू॑तिम् । उ॒क्ष॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता सुदेवाय दाशुषे सुमेधामवितारिणीम् । घृतैर्गव्यूतिमुक्षतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता । सुऽदेवाय । दाशुषे । सुऽमेधाम् । अविऽतारिणीम् । घृतैः । गव्यूतिम् । उक्षतम् ॥ ८.५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ सदाचारविषयकप्रार्थना कथ्यते।

    पदार्थः

    (ता) तौ (सुदेवाय) शोभनदेवसहिताय (दाशुषे) यजमानाय (सुमेधाम्) सुसंगमनाम् (अवितारिणीम्) अप्रतारिकाम् (गव्यूतिम्) इन्द्रियविषयभूतां स्थलीम् (घृतैः) स्नेहैः (उक्षतम्) सिञ्चतम् ॥६॥

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    विषयः

    राजादिकर्तव्यमुपदिशति ।

    पदार्थः

    पुनस्तौ राजानौ कीदृशौ इत्यपेक्षायामाह−हे अश्विनौ । ता=तौ युवाम् । सुदेवाय=सुष्ठु दीव्यति विजेतुमिच्छति यः स सुदेवः परमोद्योगी । यद्वा । शोभनो देवो यस्य स सुदेव ईश्वरोपासकः । तस्मै । दाशुषे=यो विद्यादिकम् । दाशति=ददाति स दाश्वान् । तस्मै दाशुषे । अत्र तादर्थ्ये चतुर्थी । ईदृक्पुरुषाय । अवितारिणीम्=वितरणं विगमनमपायः=अनपायिनीम् । सुमेधाम्=सुमतिं दत्तम् । पुनः । गव्यूतिम्=गावो यूयन्ते संपूज्यन्तेऽत्रेति गव्यूतिर्गोसंचारभूमिः । ताम् । घृतैः=क्षरणशीलैरुदकैः । उक्षतम्=सिञ्चतम् । उक्ष सेचने ॥६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब सदाचारवर्धक कर्मों के लिये प्रार्थना करना कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (ता) वे (सुदेवाय) शोभन देवों सहित (दाशुषे) यजमान के लिये (सुमेधाम्) सुन्दर संगतिवाली (अवितारिणीम्) आत्मा की वञ्चना न करनेवाली (गव्यूतिम्) इन्द्रियविषयभूतस्थली को (घृतैः) स्नेह से (उक्षतम्) सिञ्चित करें ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में याज्ञिक विद्वानों की ओर से यह प्रार्थना कथन की गई है कि हे कर्मयोगिन् ! आप हमारे यजमान की आत्मा को उच्च बनावें अर्थात् उन पर सदा प्रेम की दृष्टि रखें, जिससे वे अपनी इन्द्रियों को वशीभूत रखते हुए सदाचार में प्रवृत्त रहें, जिससे उनके यज्ञसम्बन्धी कार्य्य निर्विघ्न पूर्ण हों ॥६॥

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    विषय

    राजा और अमात्यादिकों के कर्तव्य का उपदेश देते हैं ।

    पदार्थ

    वे राजा और अधिकारीवर्ग कैसे हों, इस अपेक्षा में पुनः कहते हैं−हे राजन् तथा अमात्यादि वर्ग ! (ता) वे आप सब (सुदेवाय) परमोद्योगी, ईश्वरोपासक और (दाशुषे) विद्यादि दाता पुरुष के लिये (अवितारिणीम्) अनपायिनी=निर्दोषा (सुमेधाम्) सुमति देवें । और उनके लिये (गव्यूतिम्) गौवों के चरने की भूमि को (उक्षतम्) जलों से सिचावें ॥६ ॥

    भावार्थ

    राजा को उचित है कि ईश्वरोपासक आदिकों की और गवादि पशु संचारभूमि की सर्वोपायों से रक्षा करे ॥६ ॥

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    विषय

    उषा और अश्वियुगल। गृहलक्ष्मी उषा देवी। जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों को गृहस्थोचित उपदेश। वीर विद्वान् एवं राजा और अमात्य-राजावत् युगल जनों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( ता ) वे आप दोनों उत्तम विद्वान् और उत्तम विजिगीषु वा विद्यादि के अभिलाषी शिष्यों के स्वामी ( दाशुषे ) ज्ञानदाता गुरु, आचार्य वा धनप्रद स्वामी की ( सु-मेधाम् ) उत्तम बुद्धियुक्त ( अवितारिणीम् ) विनाश न होने देने वाली ( गव्यूतिम् ) वाणियों के सम्मिश्रण होने की यज्ञ क्रिया वा नीति को गोचर भूमि के समान ही ( घृतैः उक्षतम् ) स्नेहों और घृतादि पवित्र पदार्थों वा ( घृतैः ) जलों से सींचो, बढ़ाओ, उन्नत करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अवितारिणी सुमेधा

    पदार्थ

    [१] (ता) = वे दोनों प्राणापान (सुदेवाय) = शुभ देववृत्तिवाले, (दाशुषे) = भोगवृत्ति से ऊपर उठे हुए दाश्वान् पुरुष के लिये (अवितारिणीम्) = अहिंसक व अनपायिनी [स्थिर] (सुमेधाम्) = उत्तम बुद्धि को (उक्षतम्) = पवित्र कर देते हैं। प्राणसाधना से बुद्धि भी चमक उठती है, यह विवेकख्यातिवाली बनती है। [२] हे प्राणापानो! आप इस साधक के (गव्यूतिम्) = इन्द्रियरूप गौओं के प्रचारक्षेत्र को (घृतैः) = निर्मलता व ज्ञानदीप्तियों से [उक्षतम् ] सिक्त करते हो। प्राणसाधक की इन्द्रियाँ निर्मल कर्मों को करनेवाली तथा ज्ञानदीप्ति को बढ़ानेवाली होती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना [क] अहिंसक व स्थिर सुमेधा को प्राप्त कराती हैं। [ख] इन्द्रियों को निर्मल कर्मों व ज्ञानवृद्धि के कार्यों में प्रवृत्त करती है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    For the generous yajaka dedicated to divinity, we pray, bring noble intelligence of the saving order and sprinkle and energise his path of progress with inspiring waters and sparkling ghrta.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात याज्ञिक विद्वान लोकांकडून ही प्रार्थना केलेली आहे, की हे कर्मयोगी! तुम्ही आमच्या यजमानाच्या आत्म्याला उच्च बनवा. अर्थात त्यांच्यावर नेहमी प्रेमाची दृष्टी ठेवा. ज्यामुळे ते आपल्या इंद्रियांना वशीभूत करून सदाचारात प्रवृत्त होतील व त्यांचे यज्ञासंबंधी कार्य निर्विघ्नपणे पार पडेल. ॥६॥

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