ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 31
ऋषिः - ब्रह्मातिथिः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
आ व॑हेथे परा॒कात्पू॒र्वीर॒श्नन्ता॑वश्विना । इषो॒ दासी॑रमर्त्या ॥
स्वर सहित पद पाठआ । व॒हे॒थे॒ इति॑ । प॒रा॒कात् । पू॒र्वीः । अ॒श्नन्तौ॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । इषः॑ । दासीः॑ । अ॒म॒र्त्या॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वहेथे पराकात्पूर्वीरश्नन्तावश्विना । इषो दासीरमर्त्या ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वहेथे इति । पराकात् । पूर्वीः । अश्नन्तौ । अश्विना । इषः । दासीः । अमर्त्या ॥ ८.५.३१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 31
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(अमर्त्या) हे अहिंस्यौ (अश्विना) व्यापकौ ! (पराकात्) दूरदेशात् (पूर्वीः) पूर्वसम्बन्धिनीः (दासीः) शात्रवीः (इषः) धनादिशक्तीः (अश्नन्तौ) प्राप्नुवन्तौ (आवहेथे) धत्थः ॥३१॥
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
हे अश्नन्तौ=गुणैः प्रजामनसि व्याप्नुवन्तौ । हे अमर्त्या=अमर्त्यौ=यशसा अमरणधर्माणौ । हे अश्विना=राजानौ । युवाम् । दासीः=दासा उपक्षयितारश्चौरादयः । तत्सम्बन्धिनीः । पूर्वीः=पूर्णाः । बह्वीः । इषः=इष्यमाणाः सम्पत्तीः । पराकात्=परस्मादपि देशादाहृत्य । आवहेथे=आवहथः ॥३१ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(अमर्त्या) हे अहिंसनीय (अश्विना) व्यापक शक्तिवाले ! आप (पराकात्) दूरदेश से (पूर्वीः) स्वपूर्वजों की (दासीः) शत्रुगृह में स्थित (इषः) धनादि शक्तियों को (अश्नन्तौ) प्राप्त करते हुए (आवहेथे) उनको धारण करते हैं ॥३१॥
भावार्थ
हे अहिंसनशील=किसी को दुःख न देनेवाले ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! आप देश-देशान्तरों में स्थित धन को अर्थात् आपके पूर्वजों का धनरूप ऐश्वर्य्य, जो उनसे शत्रुओं ने हरण किया हुआ था, उसको आप उनसे प्राप्त कर स्वयं उपभोग करते हैं। यह आप जैसे शूरवीरों का ही प्रशंसनीय कार्य्य है। जिसका भाव यह है कि जो पुरुष अपने पूर्वजों की शत्रुगृह में गई हुई सम्पत्ति को पुनः प्राप्त करता है, वह प्रशंसा के योग्य होता है ॥३१॥
विषय
पुनः उसी विषय को कहते हैं ।
पदार्थ
(अश्नन्तौ) हे गुणों से प्रजाओं के मन में व्याप्त होते हुए (अमर्त्या) हे यश से अमरणधर्मा (अश्विना) राजा और कर्मचारी वर्ग ! आप दोनों (दासीः) चोर डाकू नास्तिक आदिकों की (पूर्वीः) बहुत (इषः) अभिलषित सम्पत्तियों को (पराकात्) दूरदेश से भी हम लोगों के लिये (आवहेथे) लाया करते हैं ॥३१ ॥
भावार्थ
प्रजापीड़क चोरादिकों के धनों को छीनकर प्रजाओं में बाँट देवें ॥३१ ॥
विषय
उषा और अश्वियुगल। गृहलक्ष्मी उषा देवी। जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों को गृहस्थोचित उपदेश। वीर विद्वान् एवं राजा और अमात्य-राजावत् युगल जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( अमर्त्या ) असाधारण मनुष्यो ! आप दोनों ( पराकात् ) दूर देश से प्राप्त होने वाली ( इषः आ वहेथे ) अन्नादि सामग्रियों को लाया करो । और ( पूर्वी: ) पूर्व प्राप्त अन्नों को ( अश्नन्ता ) भोग करते हुए ( दासी: ) भृत्यादि प्रजा को भी नयी अन्न सामग्री लाते रहो । उसी प्रकार ( पराकात् ) दूर देशों तक भी ( इषः ) तीव्र ( दासी: वहेथे ) शत्रुनाशक सेनाएं रक्खो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
प्राणसाधना व सात्विक भोजन
पदार्थ
[१] हे (अमर्त्या अश्विना) = हमें न मरने देनेवाले प्राणापानो! आप (दासीः) = रोगों का उपक्षय करनेवाले (पूर्वीः) = हमारा पालन व पूरण करनेवाले (इषः) = अन्नों को अश्वन्तौ खाते हुए इन 'अनमीव शुष्मी' नीरोगता को देनेवाले व शक्ति का पूरण करनेवाले अन्नों का सेवन करते (पराकात्) = दूरदेश से भी (आवहेथे) = लक्ष्य-स्थान पर पहुँचाते हो। [२] प्राणसाधना के साथ 'युक्ताहार-विहार' भी अत्यन्त आवश्यक है, भोजन के अतियम से प्राणसाधना लाभप्रद नहीं रहती । नीरोगता को देनेवाले व शक्ति का पूरण करनेवाले अन्नों का सेवन आवश्यक है। इस प्रकार भोजन के नियम के साथ प्राणसाधना चली तो यह हमें अवश्य लक्ष्य स्थान पर पहुँचायेगी। चाहे हम कितना भी लक्ष्य से दूर हों, यह साधना हमें उन्नत करते हुए लक्ष्य पर पहुँचायेगी ही ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्राणसाधना में प्रवृत्त हों। इस साधना के साथ भोजन का भी नियम रखें। ऐसा करने पर हम कितना भी दूर हों, अवश्य लक्ष्य स्थान पर पहुँचेंगे ही।
इंग्लिश (1)
Meaning
Immortal Ashvins, winners and harbingers of ancient sources of wealth, you bring us food, energies and wealths of tremendous positive value from farthest places and since times beyond memory.
मराठी (1)
भावार्थ
हे अहिंसक ! कुणाला दु:ख न देणारे ज्ञानयोगी व कर्मयोगी! तुम्ही देशदेशान्तरी स्थित असलेले धन अर्थात् जे शत्रूने हरण केलेले होते ते आपल्या पूर्वजांचे धनरूपी ऐश्वर्य त्यांच्याकडून प्राप्त करून त्याचा उपभोग घेता हे तुमच्यासारख्या शूरवीरांचेच प्रशंसनीय कार्य आहे. हा भाव आहे की, जो पुरुष आपल्या पूर्वजांची शत्रूने घेतलेली संपत्ती पुन्हा प्राप्त करतो. तो प्रशंसा करण्यायोग्य आहे. ॥३१॥
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