ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 36
यु॒वं मृ॒गं जा॑गृ॒वांसं॒ स्वद॑थो वा वृषण्वसू । ता न॑: पृङ्क्तमि॒षा र॒यिम् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । मृ॒गम् । जा॒गृ॒ऽवांसम् । स्वद॑थः । वा॒ । वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू । ता । नः॒ । पृ॒ङ्क्त॒म् । इ॒षा । र॒यिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं मृगं जागृवांसं स्वदथो वा वृषण्वसू । ता न: पृङ्क्तमिषा रयिम् ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम् । मृगम् । जागृऽवांसम् । स्वदथः । वा । वृषण्वसू इति वृषण्ऽवसू । ता । नः । पृङ्क्तम् । इषा । रयिम् ॥ ८.५.३६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 36
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथैश्वर्यप्रदानाय प्रार्थ्यते।
पदार्थः
(वृषण्वसू) हे वर्षणशीलधनौ ! (युवम्) युवाम् (जागृवांसम्) सचेतसम् (मृगम्) मार्गणार्हं शत्रुम् (वा) एव (स्वदथः) आस्वादेथे (ता) तौ (नः) अस्मान् (इषा) इष्टकामनया (रयिम्) धनम् (पृङ्क्तम्) संपृक्तं कुरुतम् ॥३६॥
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
वा अप्यर्थे । अपि च−हे वृषण्वसू=वृषणधनौ=धनानां वर्षितारौ राजानौ ! युवम्=युवामुभौ । जागृवांसः=जागरणशीलं स्वकार्य्ये चौर्य्यादावासक्तम् । मृगम्=व्याघ्रादिं रात्रिञ्चरं पशुमिव आक्रमणकारिणं पुरुषम् । स्वदथः=आस्वादयथो विनाशयथ इत्यर्थः । ता=तौ युवाम् । नोऽस्माकं रयिं पश्वादिसंपदम् । इषा=अन्नेन । पृङ्क्तम्=संयोजयतम् ॥३६ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब ऐश्वर्य्यरूप दान की प्रार्थना कथन करते हैं।
पदार्थ
(वृषण्वसू) हे बरसने योग्य धनवाले (युवम्) आप (जागृवांसम्, मृगं, वा) सचेतन शत्रु का ही (स्वदथः) आस्वादन करते हैं (तौ) ऐसे आप (नः) हमको (इषा) इष्ट कामना सहित (रयिम्) ऐश्वर्य से (पृङ्क्तम्) संपृक्त करें ॥३६॥
भावार्थ
हे ऐश्वर्य्यसम्पन्न ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! आप सचेतन=युद्ध के लिये सन्नद्ध शत्रु से ही युद्ध करके विजय प्राप्त करते हैं, अचेतन पर नहीं। सो हे सम्पूर्ण बलवालों में श्रेष्ठ ! आप ऐश्वर्य्यप्रदान द्वारा हमारी इष्टकामनाओं को पूर्ण करें ॥३६॥
विषय
पुनः उसी विषय को कहते हैं ।
पदार्थ
(वा) और भी (वृषण्वसू) हे धनवर्षाकारी राजन् तथा न्यायाधीशादि ! (युवम्) आप दोनों (जागृवांसम्) चोरी आदि निज कार्य्य में आसक्त (मृगम्) रात्रिचर व्याघ्रादि पशु के समान आक्रमणकारी पुरुष को (स्वदथः) खा जाते हैं अर्थात् नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं । (ता) वे आप (नः) हमारी (रयिम्) पश्वादि सम्पत्ति को (इषा) अन्न से (पृङ्क्तम्) संयुक्त करो ॥३६ ॥
भावार्थ
चोर आदि दुष्टों को विनष्ट करता हुआ राजा प्रजाओं के धनों की वृद्धि करे ॥३६ ॥
विषय
उषा और अश्वियुगल। गृहलक्ष्मी उषा देवी। जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों को गृहस्थोचित उपदेश। वीर विद्वान् एवं राजा और अमात्य-राजावत् युगल जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( बृषण्वसू ) बलवान् पुरुषों को धनवत् पालन करने वाले राजा सचिव जनो ! ( युवं ) आप दोनों ( मृगं ) सिंहवत् बलवान्, ( जागृवांसं ) जागरणशील, सदा सावधान, पुरुष को ( स्वदथः ) उत्तम ऐश्वर्य तथा उत्तम पुष्टिकारक भोजन प्रदान करो। इस प्रकार वे सेनादि के स्वामी लोग ( नः ) हमें ( इषा ) बलवती सेना सहित (रयिम् पृङ्क्तम् ) ऐश्वर्य प्राप्त कराओ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'मृग जागृवान्' का मधुर जीवन
पदार्थ
[१] हे प्राणापानो! (युवम्) = आप दोनों (वृषण्वसू) = शक्ति रूप धनोंवाले हो। आप (मृगम्) = आत्मान्वेषण करनेवाले (वा) = और (जागृवांसम्) = सदा जागरित, सावधान, विषयों में न फँसनेवाले पुरुष को (स्वदथः) = स्वादयुक्त, मधुर जीवनवाला बनाते हो। [२] (ता) = वे आप दोनों (नः) = हमारे लिये (इषा) = प्रभु-प्रेरणा के साथ (रयिम्) = धन को (पृतम्) = सम्पृक्त करो। हम पवित्र हृदय बनकर प्रभु- प्रेरणा को सुननेवाले बनें। यह प्रेरणा ही हमें धनों के दुरुपयोग से बचानेवाली होगी।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से हम आत्मान्वेषण करनेवाले सदा सावधान बनकर मधुर जीवनवाले बनते हैं। यह प्राणसाधना हमें प्रभु प्रेरणा के साथ धनों को प्राप्त कराती है।
इंग्लिश (1)
Meaning
O generous and virile leading lights of the day, you take delight in hunting the hunter on the wake (not in ambush). Similarly join the wealth of victory with the taste of food and season it with the sweets of honey.
मराठी (1)
भावार्थ
हे ऐश्वर्य संपन्न ! ज्ञानयोगी व कर्मयोगी ! तुमही सचेतन युद्धासाठी तयार असणाऱ्या शत्रूशी युद्ध करून विजय प्राप्त करता. अचेतनाबरोबर नाही. त्यासाठी संपूर्ण बलवानामध्ये श्रेष्ठ! तुम्ही ऐश्वर्यप्रदान करून आमच्या इष्टकामना पूर्ण करा. ॥३६॥
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