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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 18
    ऋषिः - ब्रह्मातिथिः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒स्माक॑म॒द्य वा॑म॒यं स्तोमो॒ वाहि॑ष्ठो॒ अन्त॑मः । यु॒वाभ्यां॑ भूत्वश्विना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्माक॑म् । अ॒द्य । वा॒म् । अ॒यम् । स्तोमः॑ । वाहि॑ष्ठः । अन्त॑मः । यु॒वाभ्या॑म् । भू॒तु॒ । अ॒श्वि॒ना॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्माकमद्य वामयं स्तोमो वाहिष्ठो अन्तमः । युवाभ्यां भूत्वश्विना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्माकम् । अद्य । वाम् । अयम् । स्तोमः । वाहिष्ठः । अन्तमः । युवाभ्याम् । भूतु । अश्विना ॥ ८.५.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 18
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (अश्विना) हे ओजस्विनौ ! (अद्य) इदानीं (अस्माकं) अस्मदीयं (अयं) एषः (वां, स्तोमः) युवयोः स्तोत्रं (युवाभ्यां) त्वदर्थं (वाहिष्ठः) अतिशयेन प्रापकं (अन्तमः) अन्तिकतमं च (भूतु) भवतु ॥१८॥

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    विषयः

    राजवर्गं स्वस्वप्रार्थनां श्रावयेदिति दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे अश्विना=अश्विनौ राजानौ । अद्यास्मिन् दिवसे । अयमस्माकं स्तोमः=प्रार्थना । वाम्=युवयोः । वाहिष्ठः=वाहयितृतमः प्रसादयितृतमः सन् । युवाभ्यां युवयोरन्तमोऽन्तिकतमोऽतिशयसमीपवर्ती । भूतु=भवतु ॥१८ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (अश्विना) हे ओजस्विन् ! (अद्य) आज (अस्माकं) हमारा (अयं, वां, स्तोमः) यह आपके लिये किया गया स्तोत्र (युवाभ्यां) आपको (वाहिष्ठः) अवश्य प्राप्त करानेवाला और (अन्तमः) समीप में होनेवाला (भूतु) हो ॥१८॥

    भावार्थ

    हे ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! आज हम लोग जिस स्तोत्र द्वारा आपकी स्तुति करते हैं, वह हमारे लिये सफलीभूत हो अर्थात् हम लोग आपके शुभाचरणों का अनुकरण करके पराक्रमी, उद्योगी तथा विद्वान् होकर आपके समीपवर्ती हों ॥१८॥

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    विषय

    राजवर्ग को अपनी-२ प्रार्थना सुनावे, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (अश्विना) हे अश्वादिबलयुक्त राजा तथा सभाध्यक्ष ! (अद्य) आज (अयम्) यह (अस्माकम्+स्तोमः) हम लोगों की स्तुति प्रार्थना (वाम्) आप दोनों को (वाहिष्ठः) अतिशय प्रसन्न करनेवाली (युवाभ्याम्) और आपके (अन्तमः+भूतु) अतिशय समीपवर्ती हो ॥१८ ॥

    भावार्थ

    सत्य और हृदयग्राही स्तुति प्रार्थना राजवर्ग को सुनावें ॥१८ ॥

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    विषय

    उषा और अश्वियुगल। गृहलक्ष्मी उषा देवी। जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों को गृहस्थोचित उपदेश। वीर विद्वान् एवं राजा और अमात्य-राजावत् युगल जनों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) अश्वादि सैन्य, राष्ट्र और विद्यादि में निष्णात विद्वानों के स्वामी जनो ! ( अस्माकम् ) हमारा ( अयं ) यह ( वां ) आप दोनों को लक्ष्य करके किया ( स्तोमः ) स्तुति योग्य उपदेश वचन एवं व्यवहार ( युवाभ्यां ) आप दोनों के लिये ( अन्तमः ) अति समीप और ( वाहिष्ठः ) अति सुख प्राप्त कराने वाला और रथ के समान जीवन को सुख से यापन करा देने वाला ( भूतु ) हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    वाहिष्ठः [स्तोमः]

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (अद्य) = आज (अस्माकम्) = हमारा (अयम्) = यह (याम्) = आपके लिये किया गया (स्तोमः) = स्तुति समूह (युवाभ्यां अन्तमः भूतु) = आपके लिये अन्तिकतम हो, अत्यन्त प्रिय हो । अर्थात् हमें यह आपकी स्तुति आपके प्रति रुचिवाला बनाये, हम प्राणसाधना की प्रवृत्तिवाले हों। [२] यह स्तोम (वाहिष्ठः) = हमें अधिक-से-अधिक लक्ष्य के समीप पहुँचानेवाला हो। वस्तुतः प्राणसाधना ही चित्तवृत्ति की एकाग्रता का साधन बनकर हमें प्रभु-दर्शन कराती है। यह प्रभु-दर्शन ही अन्तिम लक्ष्य है, यहाँ हमें यह प्राणों का स्तवन पहुँचानेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्राणापान का स्तवन करते हुए प्राणसाधना में प्रवृत्त हों। यह साधना ही हमें लक्ष्य- स्थान पर पहुँचायेगी।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, may this song of our invocation, adoration and yajnic prayer be most touching for you at heart and impel you to respond and come.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे ज्ञानयोगी व कर्मयोगी आज आम्ही ज्या स्तोत्राद्वारे तुमची स्तुती करतो, ती सफलीभूत व्हावी अर्थात आम्ही तुमच्या शुभाचरणांचे अनुकरण करून पराक्रमी उद्योगी व विद्वान बनून तुमचे समीपवर्ती बनावे. ॥१८॥

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