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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 24
    ऋषिः - ब्रह्मातिथिः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ताभि॒रा या॑तमू॒तिभि॒र्नव्य॑सीभिः सुश॒स्तिभि॑: । यद्वां॑ वृषण्वसू हु॒वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताभिः॑ । आ । या॒त॒म् । ऊ॒तिऽभिः॑ । नव्य॑सीभिः । सु॒श॒स्तिऽभिः॑ । यत् । वा॒म् । वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू । हु॒वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ताभिरा यातमूतिभिर्नव्यसीभिः सुशस्तिभि: । यद्वां वृषण्वसू हुवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताभिः । आ । यातम् । ऊतिऽभिः । नव्यसीभिः । सुशस्तिऽभिः । यत् । वाम् । वृषण्वसू इति वृषण्ऽवसू । हुवे ॥ ८.५.२४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 24
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (वृषणवसू) हे वर्षणीयधनौ ! युवां (ताभिः, नव्यसीभिः) ताभिर्नूतनाभिः (सुशस्तिभिः) सुप्रशस्याभिः (ऊतिभिः) रक्षाभिः (आयातं) आगच्छतं (यत्) यदा (वां) युवां (हुवे) आह्वयामि ॥२४॥

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    विषयः

    पुनस्तमर्थमाचष्टे ।

    पदार्थः

    हे वृषण्वसू ! वर्षणानि=वर्षाकारीणि वसूनि धनानि ययोस्तौ=परमोदारौ हे राजानौ ! यद्=यदा-२ । वाम्=युवाम् । हुवे=आह्वयामि । अन्ये च आह्वयन्ति । तदा-२ । युवाम् । नव्यसीभिः=नव्यतराभिः । सुशस्तिभिः=प्रशस्ताभिः । ताभिः=प्रसिद्धाभिः । ऊतिभी रक्षाभिरुपायैः । आयातमागच्छतम् ॥२४ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (वृषणवसू) हे धनों की वर्षा करनेवाले ! (ताभिः, नव्यसीभिः) नित्य नूतन (सुशस्तिभिः) सुप्रशंसनीय (ऊतिभिः) रक्षाओं सहित (आयातं) आवें (यत्) जब-जब (वां) आपका (हुवे) आह्वान करें ॥२४॥

    भावार्थ

    हे ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! आप अधिकारी पुरुषों को धन देनेवाले, प्रशंसनीय तथा सबकी कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं। हे भगवन् ! हम लोग जब आपको आह्वान करें, तब आप शीघ्र आकर हमारी रक्षा करें, ताकि हमारे यज्ञादि कार्य्य निर्विघ्न पूर्ण हों ॥२४॥

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    विषय

    पुनः उसी अर्थ को कहते हैं ।

    पदार्थ

    (वृषण्वसू) हे धनों की वर्षा करनेवाले परमोदार राजन् तथा हे मन्त्रिमण्डल ! (यद्) जब-२ मैं (वाम्) आपको (हुवे) बुलाऊँ और इसी प्रकार अन्यान्य प्रजाएँ आपको बुलावें तब-२ (नव्यसीभिः) नवीन-नवीन (सुशस्तिभिः) और प्रशस्त (ताभिः) उन (ऊतिभिः) रक्षाओं=उपायों के साथ (आयातम्) आवें ॥२४ ॥

    भावार्थ

    प्रजाओं की प्रार्थना सुनने के लिये सदा राज्यकर्मचारिवर्ग तैयार रहे ॥२४ ॥

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    विषय

    उषा और अश्वियुगल। गृहलक्ष्मी उषा देवी। जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों को गृहस्थोचित उपदेश। वीर विद्वान् एवं राजा और अमात्य-राजावत् युगल जनों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (वृषण-वसू) बलवान् पुरुषों को राष्ट्र में बसाने वाले नायक पुरुषो ! ( यत् वां ) अब मैं आप दोनों को ( हुवे ) प्रजाजन पुकारूं, अवसर पर चाहूं । तब २ आप दोनों ( ताभिः ) इन नाना ( नव्यसीभिः ) अति नवीन, अति उत्तम ( सु-शस्तिभिः ) शासन व्यवस्थाओं और ( ऊतिभिः ) रक्षा साधनों सहित ( आयातम् ) प्राप्त होओ ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    ऊतिभिः-सुशस्तिभिः

    पदार्थ

    [१] हे (वृषण्वसू) = शक्ति का सेचन करनेवाले, धनोंवाले प्राणापानो! (यद् वां हुवे) = जब मैं आपको पुकारूँ तो आप (ताभिः) = उन (नव्यसीभिः) = अतिशयेन स्तुत्य [नु स्तुतौ] (ऊतिभिः) = रक्षणों के साथ (आयातम्) = हमें प्राप्त होवो। आप से रक्षित हुए हुए हम किन्हीं भी रोगों व वासनाओं से आक्रान्त न हों। [२] हे प्राणापानो! हमारा रक्षण करते हुए आप (सुशस्तिभिः) = प्रशस्त स्थितियों के साथ हमें प्राप्त होवो। प्राणसाधना द्वारा हम सदा प्रशस्त कर्मों को ही करनेवाले बनें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना हमारे जीवनों में शक्तिशाली वसुओं को [धनों को] प्राप्त कराये। हमारा रोगों व वासनाओं के आक्रमण से रक्षण करे। हमारे जीवनों को प्रशस्त बनाये।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O generous lords of wealth and power, come to us with those most modern and most admirable means and methods of protection whenever we call upon you.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे ज्ञानयोगी व कर्मयोगी! तुम्ही अधिकारी पुरुषांना धन देणारे, प्रशंसनीय व सर्वांच्या कामना पूर्ण करणारे आहात. हे भगवान! आम्ही जेव्हा तुम्हाला आव्हान करतो तेव्हा तुम्ही शीघ्र येऊन आमचे रक्षण करा. कारण आमचे यज्ञ इत्यादी कार्य निर्विघ्न पार पडावे. ॥२४॥

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