ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 20
तेन॑ नो वाजिनीवसू॒ पश्वे॑ तो॒काय॒ शं गवे॑ । वह॑तं॒ पीव॑री॒रिष॑: ॥
स्वर सहित पद पाठतेन॑ । नः॒ । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । पश्वे॑ । तो॒काय॑ । शम् । गवे॑ । वह॑तम् । पीव॑रीः । इषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तेन नो वाजिनीवसू पश्वे तोकाय शं गवे । वहतं पीवरीरिष: ॥
स्वर रहित पद पाठतेन । नः । वाजिनीवसू इति वाजिनीऽवसू । पश्वे । तोकाय । शम् । गवे । वहतम् । पीवरीः । इषः ॥ ८.५.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 20
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ तयोः पुनः स्वकल्याणार्थं प्रार्थना कथ्यते।
पदार्थः
(वाजिनीवसू) हे पराक्रमधनौ ! (तेन) तेन रसपानेन प्रसन्नः सन् (नः) अस्माकं (पश्वे) पशवे (तोकाय) सन्तानाय (गवे) विद्यायै (शं, वहतं) कल्याणं कुरुतं (पीवरीः) प्रवृद्धा (इषः) सम्पत्तिः च कुरुतम् ॥२०॥
विषयः
पुनस्तमर्थमाचष्टे ।
पदार्थः
तेन हेतुना । हे वाजिनीवसू=वाजिनी=बुद्धिर्विद्या वाणिज्या अन्नादिकञ्च । सैव वसूनि धनानि ययोस्तौ । युवां नोऽस्माकम् । पश्वे=तुरङ्गादिपशवे । तोकाय=सन्तानाय । गवे=गवादिपशुभ्यश्च । येन शम्=कल्याणं भवेत् तत् कुरुतम् । तथा । पीवरीः=प्रशस्ताः । इषोऽन्नानि । वहतमानयतम् ॥२० ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगी से अपने कल्याणार्थ प्रार्थना करना कथन करते हैं।
पदार्थ
(वाजिनीवसू) हे पराक्रमरूप धनवाले ! (तेन) तिस रसपान से प्रसन्न होकर (नः) हमारे (पश्वे) पशु (तोकाय) सन्तान (गवे) विद्या के लिये (शं, वहतं) कल्याण करें और (पीवरीः) प्रवृद्ध (इषः) सम्पत्ति को उत्पन्न करें ॥२०॥
भावार्थ
हे पराक्रमशील ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! आप हमारे सिद्ध किये हुए सोमरस का पान करके प्रसन्न हों और आपकी कृपा से हमारे पशु तथा सन्तान निरोग रहकर वृद्धि को प्राप्त हों। हमारी विद्या सदा उन्नत होती रहे और हम बड़े ऐश्वर्य्य को प्राप्त हों, यह हमारी आपसे विनयपूर्वक प्रार्थना है ॥२०॥
विषय
पुनः उसी अर्थ को कहते हैं ।
पदार्थ
(तेन) इस हेतु (वाजिनीवसू) बुद्धि, विद्या, वाणिज्या, यागक्रिया और अन्नादिकों का नाम वाजिनी है । हे वाजिनीधन राजन् और हे अमात्य ! (नः) हमारे (पश्वे) अश्वादि पशुओं (तोकाय) पुत्रादि सन्तानों तथा (गवे) गवादि हितकारी पशुओं के लिये जिससे (शम्) कल्याण हो, वह आप करें तथा (पीवरीः) प्रशस्त प्रवृद्ध (इषः) अन्नादिकों को (वहतम्) हम लोगों के लिये लावें ॥२० ॥
भावार्थ
देश में जिन उपायों से अच्छे पशुओं, सन्तानों और अन्नों की वृद्धि हो, वे कर्तव्य हैं ॥२० ॥
विषय
उषा और अश्वियुगल। गृहलक्ष्मी उषा देवी। जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों को गृहस्थोचित उपदेश। वीर विद्वान् एवं राजा और अमात्य-राजावत् युगल जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( वाजिनी-वसू ) 'वाजिनी' अर्थात् ज्ञानयुक्त बुद्धि, बल युक्त सेना और ऐश्वर्य युक्त समृद्धि, भूमि आदि के ऐश्वर्य के स्वामी ! आप दोनों ( तेन ) उस पूर्वोक्त मधु से पूर्ण पात्र वा शत्रुकर्षक बल से ( नः ) हमारे ( पश्वे ) पशुओं की रक्षा ( तोकाय ) सन्तानों के पालन और ( गवे शं ) गौओं की शान्ति कल्याण के लिये ( पीवरी: इषः ) अति हृष्ट पुष्ट सेनाओं और अन्न सम्पदाओं को ( वहतं ) धारण करो। और हमें प्राप्त कराओ। इति चतुर्थो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
शारीरिक शान्ति [नीरोगता] व हृदय शुद्धि
पदार्थ
[१] (तेन) = गत मन्त्र में वर्णित सोम के पान के द्वारा, हे (वाजिनीवसू) = शक्तिरूप धनोंवाले प्राणापानो! आप (पश्वे) = पशुओं के लिये, (तोकाय) = सन्तानों के लिये, (गवे) = गौओं के लिये (शम्) = शान्ति को प्राप्त करानेवाले होइये। [२] हे प्राणापानो! आप (नः) = हमारे लिये इस सोमपान के द्वारा (पीवरी: इषः) = आप्यायित करनेवाली (इषः) = प्रेरणाओं को (वहतम्) प्राप्त कराओ। हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणायें हृदय शुद्धि के होने पर ही सुन पड़ती हैं। प्राणसाधना इस हृदय शुद्धि का साधन बनती है। ये सब प्रेरणायें हमारा आप्यायन करनेवाली होती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणायाम से शारीरिक शान्ति व हृदय की शुद्धि प्राप्त होती है।
इंग्लिश (1)
Meaning
And thereby, O lords of power and wealth, bring us abundant and ever growing food, energy, wealth and peace for our children, our animals, our lands and cows, and for our knowledge and culture, and let all that grow higher.
मराठी (1)
भावार्थ
हे पराक्रमी ज्ञानयोगी व कर्मयोगी! आम्ही सिद्ध केलेल्या सोमरसाचे पान करून प्रसन्न व्हा तुमच्या कृपेने आमचे पशू व संतान निरोगी राहून त्यांची वृद्धी व्हावी. आमची विद्या सदैव उन्नत व्हावी व आम्हाला मोठे ऐश्वर्य प्राप्त व्हावे. ही आमची तुम्हाला विनयपूर्वक प्रार्थना आहे. ॥२०॥
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