ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 17
जना॑सो वृ॒क्तब॑र्हिषो ह॒विष्म॑न्तो अरं॒कृत॑: । यु॒वां ह॑वन्ते अश्विना ॥
स्वर सहित पद पाठजना॑सः । वृ॒क्तऽब॑र्हिषः । ह॒विष्म॑न्तः । अ॒र॒म्ऽकृतः॑ । यु॒वाम् । ह॒व॒न्ते॒ । अ॒श्वि॒ना॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जनासो वृक्तबर्हिषो हविष्मन्तो अरंकृत: । युवां हवन्ते अश्विना ॥
स्वर रहित पद पाठजनासः । वृक्तऽबर्हिषः । हविष्मन्तः । अरम्ऽकृतः । युवाम् । हवन्ते । अश्विना ॥ ८.५.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 17
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(अश्विना) हे अत्यन्तपराक्रमिणः ! (वृक्तबर्हिषः) पृथक्त्यक्तासनाः (हविष्मन्तः) त्वदीयभागवन्तः (अरंकृतः) संस्कृताः सन्तः (जनासः) सर्वे जनाः (युवां, हवन्ते) युवां आह्वयन्ति ॥१७॥
विषयः
न्यायार्थं राजवर्गमाह्वातव्य इति दर्शयति ।
पदार्थः
हे अश्विना=अश्विनौ=राजानौ । वृक्तबर्हिषः=वृक्ताश्छिन्ना बर्हिषो बृहन्तो महान्तः कामक्रोधादिशत्रवो यैस्ते निवृत्तरागादिदोषा इत्यर्थः । अतएव हविष्मन्तः=उपासनावन्तः । अतः=अरंकृतः=अरं पर्य्याप्तं कुर्वन्तीति अरंकृतः=परमोद्योगिनः । जनासः=पुरुषाः । युवामेव । हवन्ते=आह्वयन्ति ॥१७ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(अश्विना) हे अत्यन्त पराक्रमवाले ! (वृक्तबर्हिषः) आपके लिये पृथक् आसन सज्जित करके (हविष्मन्तः) आपके सिद्ध भाग को लिये हुए (अरंकृतः) संस्कृत शरीर बनकर (जनासः) सब मनुष्य (युवां, हवन्ते) आपका आह्वान करते हैं ॥१७॥
भावार्थ
हे ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! आप पराक्रमी होने से सबको पराक्रमसम्पन्न बनानेवाले हैं, इसलिये आपको उत्तमासन सुसज्जित करके उत्तम वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर सिद्ध किया हुआ सोमरस लिये हुए सब पुरुष आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सो आप उसका पान करके हमारे यज्ञ को प्राप्त होकर उत्तम उपदेशों द्वारा हमें पराक्रमी बनावें ॥१७॥
विषय
न्याय करने के लिये राजवर्ग को बुलाना चाहिये, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(अश्विना) हे अश्वादिशक्तियुक्त राजन् और सभाध्यक्ष ! (वृक्तबर्हिषः) कामक्रोधादिशत्रुच्छेत्ता अतएव (हविष्मन्तः) उपासनावान् और (अरंकृतः) बहुत काम करनेवाले परमोद्योगी (जनासः) मनुष्य (युवाम्) आप ही दोनों को शुभकर्मों में (हवन्ते) बुलाते हैं । अतः आप सदा प्रजाओं की रक्षा में तत्पर होवें ॥१७ ॥
भावार्थ
वृक्तबर्हिष् यह नाम ऋत्विक् का भी है, जो कामक्रोधादिकों से रहित हैं, वे वृक्त हैं, वे ही निष्कामी हविष्मान् और अरंकृत अर्थात् परमोद्योगी हैं, इस प्रकार के मनुष्यों का अधिकार है कि वे राजपुरुषों को अपने गृह पर बुलाकर सदुपदेश देवें और अभियोग का निर्णय करावें ॥१७ ॥
विषय
उषा और अश्वियुगल। गृहलक्ष्मी उषा देवी। जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों को गृहस्थोचित उपदेश। वीर विद्वान् एवं राजा और अमात्य-राजावत् युगल जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) अश्व अर्थात् राष्ट्र के स्वामी राजा और अमात्य, सेना-सभा के अध्यक्ष जनो ! ( युवां ) आप दोनों को ( वृक्त-बर्हिषः ) कुशा को काट लाने वाले यज्ञशील पुरुषों के समान ( वृक्त-बर्हिषः ) अपने बढ़ते शत्रुओं को काट गिराने वाले ( हविष्मन्तः ) अन्नादि उत्तम समृद्धिमान् ( अरंकृतः ) अत्यन्त उद्योग से कार्य करने वाले, कर्मण्य जन (हवन्ते) बुलाते हैं वा तुम को अपना प्रधान स्वीकार करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
हविष्मन्तो अरंकृतः
पदार्थ
हे (अश्विना) = राष्ट्र के अध्यक्ष्य और सेनापति (जनासः) = जनो ! (युवाम्) = आप दोनों को (वृक्त-बर्हिषः) = शत्रुहन्ता (हविष्मन्तः) = समृद्धियुक्त (अरंकृतः) = उद्योगीजन (हवन्ते) = बुलाते हैं। शक्तियों का विकास करने की कामनावाले लोग प्राणापान की साधना करते हैं। यह साधना इन्हें 'पवित्र हृदयवाला, त्याग की वृत्तिवाला व सद्गुणालंकृत जीवनवाला' बनाती है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे राष्ट्रपति सेनापति शत्रुहन्ता हों।
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, the people in top form of readiness, having prepared the hall of yajnic reception in top gear with provisions of homage, invoke you and call upon you to come.
मराठी (1)
भावार्थ
हे ज्ञानयोगी व कर्मयोगी! तुम्ही पराक्रमी असल्यामुळे सर्वांना पराक्रमसंपन्न करणारे आहात. तुम्हाला सुसज्जित उत्तमासनावर बसविण्यासाठी उत्तम वस्त्राभूषणांनी अलंकृत होऊन, सिद्ध केलेला सोमरस घेऊन, सर्व पुरुष तुमच्या आगमनाची प्रतीक्षा करत आहेत. त्यासाठी त्याचे प्राशन करून आमच्या यज्ञात येऊन उत्तम उपदेशाद्वारे आम्हाला पराक्रमी बनवा. ॥१७॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal