ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 34
रथं॑ वा॒मनु॑गायसं॒ य इ॒षा वर्त॑ते स॒ह । न च॒क्रम॒भि बा॑धते ॥
स्वर सहित पद पाठरथ॑म् । वा॒म् । अनु॑ऽगायसम् । य । इ॒षा । वर्त॑ते । स॒ह । न । च॒क्रम् । अ॒भि । बा॒ध॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रथं वामनुगायसं य इषा वर्तते सह । न चक्रमभि बाधते ॥
स्वर रहित पद पाठरथम् । वाम् । अनुऽगायसम् । य । इषा । वर्तते । सह । न । चक्रम् । अभि । बाधते ॥ ८.५.३४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 34
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(यः) यो रथः (इषा, सह) इष्टकामनया सह (वर्तते) विद्यते तम् (वाम्) युवयोः (अनुगायसम्, रथम्) स्तोतव्यं रथम् (चक्रम्) परसैन्यम् (न, बाधते) नाभिहन्तुं शक्नोति ॥३४॥
विषयः
रथस्य वर्णनमाह ।
पदार्थः
हे अश्विनौ राजानौ ! वाम्=युवयोर्यो रथः । इषा=विज्ञानेन । सह वर्तते=विज्ञानेन रचितोऽस्ति । तमनुगायसम्=अनुगातव्यं प्रशंसनीयं रथम् । चक्रम्=परसैन्यं नाभिबाधते=न हन्तुं शक्नोति ॥३४ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(यः) जो (इषा, सह, वर्तते) इष्ट कामनाओं से पूर्ण है, उस (वाम्) आपके (अनुगायसम्, रथम्) स्तुति योग्य रथ को (चक्रम्) शत्रुसैन्य (न, बाधते) बाधित नहीं कर सकता ॥३४॥
भावार्थ
हे ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! आपका जो शीघ्रगामी दृढ़ यान है, उसमें बैठे हुए आपको शत्रु की सेना कुछ भी बाधा नहीं कर सकती, क्योंकि आप बलपूर्ण हैं, इसलिये कृपा करके हमारे यज्ञ को आकर शीघ्र ही सुशोभित करें ॥३४॥
विषय
रथ का वर्णन करते हैं ।
पदार्थ
हे राजन् तथा अमात्यवर्ग ! (वाम्) आपका (यः) जो रथ (इषा) विज्ञान के (सह+वर्तते) साथ विद्यमान है अर्थात् विज्ञान की सहायता से रचा गया है, उस (अनुगायसम्) अनुगातव्य=प्रशंसनीय (रथम्) रमणीय रथ को (चक्रम्) शत्रुसेना या परराष्ट्र (न+अभिबाधते) नहीं पहुँचा सकता ॥३४ ॥
भावार्थ
राजरथ विज्ञान के साहाय्य से रचित और सुदृढ़ हो ॥३४ ॥
विषय
उषा और अश्वियुगल। गृहलक्ष्मी उषा देवी। जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों को गृहस्थोचित उपदेश। वीर विद्वान् एवं राजा और अमात्य-राजावत् युगल जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( यः इषा सह वर्तते ) जो अन्नादि तथा सैन्य से सम्पन्न है तुम दोनों के ( अनु-गायसं ) अनुगमन करने योग्य व प्रशंसनीय ( रथम् ) रमणीय राष्ट्र को ( रथं चक्रं ) रथ को चक्र के समान ( चक्रं ) चक्रवत् पर-सैन्य अथवा कर्मकर्तृगण (न अभि बाधते ) नहीं पीड़ित करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'शत्रुओं से अनाक्रान्त' रथ
पदार्थ
[१] हे प्राणापानो! (वां रथम्) = आपके रथ को (चक्रम्) = रोगों व वासनारूप शत्रुओं का समूह (न अभिबाधते) = पीड़ित नहीं करता । अतएव आपका यह रथ (अनुगायसम्) = प्रशंसनीय - स्तुत्य है अथवा लक्ष्य के अनुकूल गतिवाला है। [२] यह रथ वह है (यः) = जो (इषा सह वर्तते) = प्रभु की प्रेरणा के साथ है, अर्थात् जो रथ प्रभु प्रेरणा के अनुसार ही गतिवाला है। यह रथ सदा प्रभु प्रेरणा से प्रदर्शित मार्ग पर चलता है।
भावार्थ
भावार्थ-प्रामसाधना से यह शरीर रथ रोगों व वासनाओं से बाधित नहीं होता। यह साधना हमें प्रभु प्रेरणा के सुनने योग्य बनाती है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Your chariot which moves on fuel and energy and the wheel of your progress thereby, no one can obstruct on course.
मराठी (1)
भावार्थ
हे ज्ञानयोगी व कर्मयोगी! तुमचे जे शीघ्रगामी यान आहे त्यात बसल्यावर तुम्हाला शत्रूची सेना बाधा आणू शकत नाही. कारण तुम्ही बलवान आहात त्यासाठी कृपा करून आमचा यज्ञ तात्काळ सुशोभित करा. ॥३४॥
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