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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 37
    ऋषिः - ब्रह्मातिथिः काण्वः देवता - अश्विनौ, वैद्यस्य कशोर्दानस्तुतिः छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    ता मे॑ अश्विना सनी॒नां वि॒द्यातं॒ नवा॑नाम् । यथा॑ चिच्चै॒द्यः क॒शुः श॒तमुष्ट्रा॑नां॒ दद॑त्स॒हस्रा॒ दश॒ गोना॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । मे॒ । अ॒श्वि॒ना॒ । स॒नी॒नाम् । वि॒ध्यात॑म् । नवा॑नाम् । यथा॑ । चि॒त् । चै॒द्यः । क॒शुम् । श॒तम् । उष्ट्रा॑नाम् । दद॑त् । स॒हस्रा॑ । दश॑ । गोना॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता मे अश्विना सनीनां विद्यातं नवानाम् । यथा चिच्चैद्यः कशुः शतमुष्ट्रानां ददत्सहस्रा दश गोनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता । मे । अश्विना । सनीनाम् । विध्यातम् । नवानाम् । यथा । चित् । चैद्यः । कशुम् । शतम् । उष्ट्रानाम् । ददत् । सहस्रा । दश । गोनाम् ॥ ८.५.३७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 37
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (ता, अश्विना) तादृशौ ज्ञानयोगिकर्मयोगिणौ ! (नवानाम्) नूतनानाम् (सनीनाम्) संभजनीयपदार्थानाम् (मे) मह्यम् (विद्यातम्) जानीयाथाम् “कर्मणि षष्ठी” (यथाचित्) येन प्रकारेण (चैद्यः, कशुः) विद्वान् शासकः (उष्ट्राणाम्, शतम्) क्रमेलकाः शतम् (गोनाम्) गवाम् (दश, सहस्रा) दशसहस्राणि (ददत्) दद्यात् ॥३७॥

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    विषयः

    ईश्वरोपासनफलमाह ।

    पदार्थः

    हे अश्विना=अश्विनौ । ता=तौ युवाम् । मे=मम । नवानाम्=नवीनानां सम्प्रत्येव प्राप्तानाम् । सनीनाम्=विविधप्राप्तीनाम् । सम्बन्धे । इदम् । विद्यातम्=जानीतम् । यथाचित्=यथाहि । चैद्यः=चेदयः सुशिक्षितानि पञ्चज्ञानेन्द्रियाणि । चेतन्ति संजानन्ति स्वं स्वं विषयमिति चेतयः । व्यत्ययेन चेतय एव चेदयः । तेभ्यो जातश्चैद्यः । कशुर्विवेकः=काशते प्रकाशत इति कशुः । उष्ट्राणां शतम् । गोनां गवाम् । दशसहस्रा=सहस्राणि । ददत्=दत्तवान् इति युवां जानीतम् ॥३७ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (ता, अश्विना) ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! आप (नवानाम्) नित्यनूतन (सनीनाम्) सम्भजनीय पदार्थों को (मे) मेरे लिये (विद्यातम्) ज्ञात करें (यथाचित्) जिस प्रकार (चैद्यः, कशुः) ज्ञानवान् शासनकर्त्ता (उष्ट्राणाम्, शतम्) सौ उष्ट्र और (दश, सहस्रा) दस हज़ार (गोनाम्) गौएँ (ददत्) मुझे दे ॥३७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में यजमान की ओर से कथन है कि हे ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! आप उत्तमोत्तम नूतन पदार्थ मेरे लिये ज्ञात करें=जानें अर्थात् प्रदान करें। हे सबके शासक प्रभो ! आप मुझको सौ ऊँट और दश सहस्र गौओं का दान दें, जिससे मेरा यज्ञ सर्वाङ्गपूर्ण हो ॥३७॥

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    विषय

    ईश्वर की उपासना का फल कहते हैं ।

    पदार्थ

    (अश्विना) हे अश्वयुक्त राजन् तथा न्यायाधीशादि ! (ता) वे आप (मे) मेरी (नवानाम्) नवीन (सनीनाम्) प्राप्तियों के सम्बन्ध में (विद्यातम्) इस प्रकार जानें (यथा+चित्) कि (चैद्यः१) पञ्चज्ञानेन्द्रियजन्य (कशुः) विवेक ने मुझको (उष्ट्राणाम्+शतम्) एकसौ १०० ऊँट और (गोनाम्+दश+सहस्रा) दशसहस्र १०००० गाएँ (ददद्) दी हैं ॥३७ ॥

    भावार्थ

    विद्यादि गुणसम्पन्न विवेकी पुरुष बहुत धनसंचय कर सकते हैं, अतः हे मनुष्यों ! गुणों का उपार्जन करो, विद्या, उद्योग और व्यापारादिकों से जो कुछ प्राप्त हो, उसकी वार्ता राजा के निकट पहुँचा देवे, ताकि राजा को चोरी आदि का सन्देह न हो ॥३७ ॥

    टिप्पणी

    १−चैद्य (चेतन्ति) ज्ञानेन्द्रिय के शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ये पाँचों विषय हैं, इनको ज्ञानेन्द्रिय जानते हैं या इनके द्वारा आत्मा को विषयों का ज्ञान होता है, अतः इनको चेति कहते हैं, चेति को ही चेदि कहते हैं । इन ज्ञानेन्द्रियों से जो उत्पन्न हो, वह चैद्य है ॥३७ ॥

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    विषय

    वैद्य प्रभु के दान और उसको अध्यात्म व्याख्या

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) वेगयुक्त अश्वादि साधनों के स्वामी जनो ! (ता) वे आप दोनों (मे) मुझ विद्वान् वा राष्ट्र के ( नवानाम् ) नये नये ( सनीनां ) योग्य ऐश्वर्यो और ज्ञानों का सदा (विद्यातम्) ज्ञान करते, जनाते वा प्राप्त कराते रहो। ( यथा चित् ) जिससे ( चैद्यः कशुः ) विद्वानों में उत्तम ज्ञानदर्शी और तेजस्वी पुरुष ( उष्ट्रानां ) राष्ट्र में बसने और शत्रु को दग्ध करने वाले ( शतम् ) सैकड़ों प्रजाओं वा वीरों तथा (गोनाम् दशसहस्रा) दस सहस्र भूमियों को भी ( ददत् ) प्रदान करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    चैद्यः कशुः

    पदार्थ

    [१] (ता अश्विना) = वे प्राणापान मे मेरे लिये (नवानाम्) = स्तुत्य [ नु स्तुतौ] (सनीनाम्) = प्राप्तियों का (विद्यातम्) = ज्ञान दें। इन प्राणापान की साधना से मुझे अन्नमय आदि सब कोशों का उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त हो। [२] प्राणापान का ऐसा अनुग्रह हो कि (यथा) = जिस से (चित्) = निश्चयपूर्वक (चैद्यः) = [चित् एव चैद्यः] ज्ञानस्वरूप कशुः - [कश गतिशासनयोः] सर्वत्र क्रियावाला सर्वशासक प्रभु शतम् - शतवर्षपर्यन्त उष्ट्रानाम् = [उष् दाहे] दोषदहन शक्तियों का ददत्-देनेवाला हो तथा गोनाम् = इन ज्ञान की वाणियों के दश सहस्त्रा दस हजारों को [ऋग्वेदस्थ १० हजार मन्त्रों को] वे प्रभु हमारे लिये देनेवाले हों। यह ज्ञानाग्नि ही तो कर्म-दोषों को भस्म करके उन्हें पवित्र करेगी।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणापान की साधना से सब कोशों का ऐश्वर्य प्राप्त हो। शतवर्षपर्यन्त दोषदहन शक्ति मिले। तथा कर्मदोषों को भस्म करनेवाली ज्ञान-वाणियाँ प्राप्त हों।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Such as you are, Ashvins, harbingers of the sweets of life, please know the newest and most favourite gifts I love just as the perceptive ruler knew when he granted me a hundred camels and ten thousand cows.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात यजमानाकडून म्हटले गेले आहे, की हे ज्ञानयोगी व कर्मयोगी! तुम्ही उत्तमोत्तम पदार्थ मला ज्ञात करून द्या. अर्थात प्रदान करा. हे सर्वांचा शासक प्रभो! तुम्ही मला शंभर उंट, दशसहस्र गायी दान द्या. ज्याद्वारे माझा यज्ञ पूर्ण व्हावा. ॥३७॥

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