ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 13
ऋषिः - ब्रह्मातिथिः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
नि षु ब्रह्म॒ जना॑नां॒ यावि॑ष्टं॒ तूय॒मा ग॑तम् । मो ष्व१॒॑न्याँ उपा॑रतम् ॥
स्वर सहित पद पाठनि । सु । ब्रह्म॑ । जना॑नाम् । या । अवि॑ष्टम् । तूय॑म् । आ । ग॒त॒म् । मो इति॑ । सु । अ॒न्यान् । उप॑ । अ॒र॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नि षु ब्रह्म जनानां याविष्टं तूयमा गतम् । मो ष्व१न्याँ उपारतम् ॥
स्वर रहित पद पाठनि । सु । ब्रह्म । जनानाम् । या । अविष्टम् । तूयम् । आ । गतम् । मो इति । सु । अन्यान् । उप । अरतम् ॥ ८.५.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 13
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(या) यौ युवां (जनानां) मनुष्याणां (ब्रह्म) यज्ञं (सु) सुष्ठुरीत्या (नि, अविष्टं) नितराम् अरक्षिष्टं तौ (तूयं) तूर्यम् (आगतं) आगच्छतम् (अन्यान्) अस्मदितरान् (मो) मा (सूपारतं) उपगच्छतम् ॥१३॥
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
हे राजानौ ! या=यौ युवाम् । जनानाम्=मनुष्याणां मध्ये । ब्रह्म=ब्रह्मज्ञानम् । नि=नितराम् । सु=सुष्ठु । आविष्टमवितवन्तौ रक्षितवन्तौ तौ । युवाम् । तूयम्=शीघ्रम् । अस्मानपि । आगतमागच्छतम् । हे राजानौ ! अन्यान्=चोरादीन् पुरुषान् । मो=मैव । सूपारतम्=रक्षतम् । किन्तु तान् विनाशयतमेव ॥१३ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(या) जिन आपने (जनानां) मनुष्यों के (ब्रह्म) यज्ञ की (सु) भलीभाँति (नि, अविष्टं) नितान्त रक्षा की, वे आप (तूयं) शीघ्र (आगतं) आएँ (अन्यान्) हमसे अन्य के समीप (मो) मत (सूपारतं) चिरकाल तक विलम्ब करें ॥१३॥
भावार्थ
हे ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! आप यज्ञों के रक्षक, याज्ञिक पुरुषों के नितान्त सेवी और विद्वानों का पूजन करनेवाले हैं, इसलिये प्रार्थना है कि आप विलम्ब न करते हुए शीघ्र ही हमारे यज्ञस्थान को पधारकर सुशोभित करें ॥१३॥
विषय
पुनः राजकर्तव्य का उपदेश देते हैं ।
पदार्थ
हे राजा और सभाध्यक्ष ! (या) जिन आप दोनों ने (जनानाम्) मनुष्यों में (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञान और नाना विद्याओं की (नि+सु) अत्यन्त अच्छे प्रकार (आविष्टम्) रक्षा की है । वे आप (तूयम्) शीघ्र (आगतम्) हमारे यज्ञों वा शुभकर्मों में आवें और (अन्यान्) चोर डाकू व्यभिचारी दुराचारी आदि दुष्ट पुरुषों को (मो) कदापि भी न (सूपारतम्) बचावें किन्तु इनको दण्ड देकर सुशिक्षित बनावें ॥१३ ॥
भावार्थ
जो राजपुरुष ज्ञान-विज्ञान की सदा रक्षा करते हैं और सर्वदा जनताओं के ऊपर ध्यान रखते, जिनका जीवन ही प्रजार्थ है, वे ही सर्वत्र आदरणीय हैं ॥१३ ॥
विषय
उषा और अश्वियुगल। गृहलक्ष्मी उषा देवी। जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों को गृहस्थोचित उपदेश। वीर विद्वान् एवं राजा और अमात्य-राजावत् युगल जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे शक्तिमान् सेनापति, और सैन्य वर्ग जनो ! ( यौ ) जो आप दोनों ( जनानां ब्रह्म ) मनुष्यों के धन, अन्न और बृहत् राष्ट्र को ( नि सु अविष्टम् ) अच्छी प्रकार रक्षा करते हो वे आप दोनों ( तूयम् आ गतम् ) शीघ्र प्राप्त होओ । ( अन्यान् ) औरों को ( मो सु उप अरतम्) मत प्राप्त होओ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
ज्ञान-रक्षण
पदार्थ
[१] हे प्राणापानो! (या) = जो आप (जनानाम्) = लोगों के (ब्रह्म) = ज्ञान को (नि) = निश्चय से (सु) = अच्छी प्रकार (अविष्टम्) = रक्षित करते हो, वे आप (तूयं आगतम्) = शीघ्रता से प्राप्त होवो । [२] (अन्यान्) = ज्ञान विरोधी अन्य भावों को (मा उ) = मत ही (सु उपारतम्) = हमारे समीप प्राप्त कराओ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से हमारी ज्ञानदीप्ति विकसित होती है, अतः हम प्राण-साधक बनें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Come soon to the yajna of the people and protect and promote their creative development, but please neglect not the others too, nor offend and grieve them.
मराठी (1)
भावार्थ
हे ज्ञानयोगी व कर्मयोगी! तुम्ही यज्ञाचे रक्षक, याज्ञिक पुरुषांचे नितान्त सेवने करणारे व विद्वानांचे पूजन करणारे आहात. त्यासाठी प्रार्थना आहे की तुम्ही विलंब न करता शीघ्र आमच्या यज्ञस्थानी येऊन सुशोभित करा. ॥१३॥
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