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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
    ऋषिः - ब्रह्मातिथिः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ न॒: स्तोम॒मुप॑ द्र॒वत्तूयं॑ श्ये॒नेभि॑रा॒शुभि॑: । या॒तमश्वे॑भिरश्विना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । स्तोम॑म् । उप॑ । द्र॒वत् । तूय॑म् । श्ये॒नेभिः॑ । आ॒शुऽभिः॑ । या॒तम् । अश्वे॑भिः । अ॒श्वि॒ना॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ न: स्तोममुप द्रवत्तूयं श्येनेभिराशुभि: । यातमश्वेभिरश्विना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नः । स्तोमम् । उप । द्रवत् । तूयम् । श्येनेभिः । आशुऽभिः । यातम् । अश्वेभिः । अश्विना ॥ ८.५.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 7
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (अश्विना) हे ज्ञानयोगिकर्मयोगिणौ युवाम् (द्रवत्) उद्गीर्णम् (नः, स्तोमम्, उप) अस्माकं स्तोत्रमभि (आशुभिः, श्येनेभिः) श्रीघ्रगामिभिः शस्त्रैः सहितः (अश्वेभिः) अश्वैर्द्वारा (तूयम्) क्षिप्रम् (आयातम्) आगच्छतम् ॥७॥

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    विषयः

    पुनस्तमर्थमाह ।

    पदार्थः

    हे अश्विना=हे अश्विनौ राजानौ । युवाम् । श्येनेभिः=श्येनैः=श्येनविहगैरिव । आशुभिः=शीघ्रगामिभिः अश्वेभिः=अश्वैस्तुरङ्गैर्युक्तेन रथेन । द्रवत्तूयम्=शीघ्रं शीघ्रम्=शीघ्रमेव न विलम्बेन । नः=अस्माकं स्तोमं प्रार्थनापत्रं श्रोतुम् । उपायातम्=आगच्छतम् ॥७ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (अश्विना) हे ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगी ! आप (द्रवत्) उच्चारण किये हुए (नः, स्तोत्रम्, उप) हमारे स्तोत्र के अभिमुख (आशुभिः, श्येनेभिः) शीघ्रगामी शस्त्रों सहित (अश्वेभिः) अश्वों द्वारा (तूयम्) शीघ्र (आयातम्) आवें ॥७॥

    भावार्थ

    विद्वज्जनों की ओर से प्रार्थना है कि हे कर्मयोगिन् तथा ज्ञानयोगिन् ! हमारे क्षात्रधर्मसम्बन्धी स्तोत्रों के उच्चारणकाल में आप सशस्त्र शीघ्र आवें और आकर क्षात्रधर्म का महत्त्व तथा शस्त्रों की प्रयोगविधि का श्रवण करें, जिससे हमारा ज्ञान वृद्धि को प्राप्त हो ॥७॥

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    विषय

    फिर उसी अर्थ को कहते हैं ।

    पदार्थ

    (अश्विना) हे पुण्यकृत राजन् और सभाध्यक्ष ! आप दोनों (श्येनेभिः) श्येन पक्षी के समान (आशुभिः) शीघ्रगामी (अश्वेभिः) अश्वों से युक्त रथ के द्वारा (नः) हम लोगों के (स्तोमम्) निवेदन को सुनने के लिये (द्रवत्) शीघ्र (तूयम्) शीघ्र ही विलम्ब न करके (उपायातम्) समीप आवें ॥७ ॥

    भावार्थ

    आवश्यक कार्य उपस्थित होने पर राजा को या कर्मचारी को निज गृह पर बुलाकर घटना निवेदन करे और राजा भी उसे सुन शीघ्र निर्णय करे ॥७ ॥

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    विषय

    उषा और अश्वियुगल। गृहलक्ष्मी उषा देवी। जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों को गृहस्थोचित उपदेश। वीर विद्वान् एवं राजा और अमात्य-राजावत् युगल जनों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) उत्तम अश्वों और इन्द्रियों के स्वामी जनो ! आप दोनों ( नः ) हमारे ( द्रवत् तूयम् ) शीघ्र शीघ्र ही ( नः ) हमारे ( स्तोमम् उप ) स्तुत्य उपदेश को प्राप्त करने के लिये ( श्येनेभिः ) उत्तम गति वाले सदाचारी, ( आशुभिः ) शीघ्रगामी और ( अश्वेभिः ) अश्वोंवत् प्राण वृत्तियों से ( उप यातम् ) प्राप्त होओ ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'श्येन-आशु' अश्व

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (नः) = हमारे (स्तोमम्) = स्तुति समूह को (द्रवत् तूयम्) = दौड़कर शीघ्रता से (श्येनेभिः) = शंसनीय गतिवाले (आशुभिः) = शीघ्रता से कार्यों में व्यापनेवाले (अश्वेभिः) = इन्द्रियाश्वों के साथ (उप आयतम्) = समीपता से प्राप्त होवो। [२] प्राणसाधना हमें स्तुति में प्रवृत्त करती है तथा हमारे इन्द्रियाश्वों को प्रशस्त गतिवाला, शुभ कर्म प्रवृत्त व शीघ्र गतिवाला, स्फूर्तियुक्त करती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधन के द्वारा [क] हमारी वृत्ति प्रभु-प्रवण होती है, प्रभु के स्तोत्र हमें प्रिय होते हैं, [ख] हमारे इन्द्रियाश्व शंसनीय गतिवाले व शीघ्रगतिवाले होते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, fly to our congregation of yajna and divine adoration at the earliest on the wings of celestial eagles upon the instant, hasten to us by flying horses.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वान प्रार्थना करतात, की हे कर्मयोगी व ज्ञानयोगी! आमच्या क्षात्रधर्मासंबंधी स्तोत्रांच्या उच्चारणकाळात तुम्ही सशस्त्र व शीघ्र यावे व क्षात्रधर्माचे महत्त्व व शस्त्रांच्या प्रयोगाविधीचे श्रवण करवावे. ज्यामुळे आमची ज्ञानवृद्धी व्हावी. ॥७॥

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