ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
ऋषिः - श्रुष्टिगुः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
यथा॒ मनौ॒ सांव॑रणौ॒ सोम॑मि॒न्द्रापि॑बः सु॒तम् । नीपा॑तिथौ मघव॒न्मेध्या॑तिथौ॒ पुष्टि॑गौ॒ श्रुष्टि॑गौ॒ सचा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । मनौ॑ । साम्ऽव॑रणौ । सोम॑म् । इ॒न्द्र॒ । अपि॑बः । सु॒तम् । नीप॑ऽअतिथौ । म॒घ॒ऽव॒न् । मेध्य॑ऽअतिथौ । पुष्टि॑ऽगौ । श्रुष्टि॑ऽगौ । सचा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा मनौ सांवरणौ सोममिन्द्रापिबः सुतम् । नीपातिथौ मघवन्मेध्यातिथौ पुष्टिगौ श्रुष्टिगौ सचा ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । मनौ । साम्ऽवरणौ । सोमम् । इन्द्र । अपिबः । सुतम् । नीपऽअतिथौ । मघऽवन् । मेध्यऽअतिथौ । पुष्टिऽगौ । श्रुष्टिऽगौ । सचा ॥ ८.५१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 51; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
विषय - उत्तम राजा का वर्णन।
भावार्थ -
( यथा ) जितना और जिस प्रकार ( सांवरणौ ) उत्तम रीति से वरण करने योग्य ( मनौ ) प्रजा को थामने, उनको मर्यादा में स्थापित करने वाले राजा के पद पर विराज कर हे ( मधवन् ) उत्तम ऐश्वर्यवन् ! तू ( सुतम् सोमम् ) उत्पन्न ऐश्वर्य, राष्ट्र का ( अपिबः ) भोग करता है उतना ही हे ( इन्द्र ) शत्रुहन्तः ! तू (नीपातिथौ) मार्गदर्शी के अतिथिवत् पूज्य पद पर और ( मेध्यातिथौ ) अन्न यज्ञादि से सत्कार योग्य अतिथिवत् पूज्य परिव्राजक के पद पर और (पुष्टिगौ) उतना ही पुष्टि अर्थात् पशु सम्पदायुक्त भूमि के स्वामी एवं अन्नादि से समृद्ध भूमि के स्वामी के पद पर (सचा) समवेत होकर भी भोग सकता है। अर्थात् क्षत्रिय राजा के ऐश्वर्यं से परिव्राट् तथा सम्पन्न वैश्य का ऐश्वर्य भी कम नहीं है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - श्रुष्टिगुः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता। छन्दः— १, ३, ९ निचृद् बृहती। ५ विराड् बृहती। ७ बृहती। २ विराट् पंक्ति:। ४, ६, ८, १० निचृत् पंक्तिः॥ दशर्चं सूक्तम्॥
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