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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 51/ मन्त्र 4
    ऋषिः - श्रुष्टिगुः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यस्मा॑ अ॒र्कं स॒प्तशी॑र्षाणमानृ॒चुस्त्रि॒धातु॑मुत्त॒मे प॒दे । स त्वि१॒॑मा विश्वा॒ भुव॑नानि चिक्रद॒दादिज्ज॑निष्ट॒ पौंस्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मै॑ । अ॒र्कम् । स॒प्तऽशी॑र्षाणम् । आ॒नृ॒चुः । त्रि॒ऽधातु॑म् । उ॒त्ऽत॒मे । प॒दे । सः । तु । इ॒मा । विश्वा॑ । भुव॑नानि । चि॒क्र॒द॒त् । आत् । इत् । ज॒नि॒ष्ट॒ । पौंस्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मा अर्कं सप्तशीर्षाणमानृचुस्त्रिधातुमुत्तमे पदे । स त्वि१मा विश्वा भुवनानि चिक्रददादिज्जनिष्ट पौंस्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मै । अर्कम् । सप्तऽशीर्षाणम् । आनृचुः । त्रिऽधातुम् । उत्ऽतमे । पदे । सः । तु । इमा । विश्वा । भुवनानि । चिक्रदत् । आत् । इत् । जनिष्ट । पौंस्यम् ॥ ८.५१.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 51; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 4

    भावार्थ -

    इन्द्र विषयक उपदेश। (उत्तमे पढ़े ) परम, उत्तम पद पर विद्यमान ( यस्मै ) जिस प्रभु के वर्णन करने के लिये ( त्रि-धातुम् ) तीनों प्रकार से धारित ( सप्त-शीर्षाणम् अर्कं ) सात शिरों वाले अर्चना योग्य मन्त्रगण की ( आनृचुः ) स्तुति करते हैं, ( सः तु ) वही परमेश्वर ( इमा विश्वा भूतानि ) इन समस्त भुवनों को ( चिक्रदत् ) शासन करता है और ( पौस्य जनिष्ट ) पौरुष, बल, महती शक्ति प्रकट करता है, वेद मन्त्र प्रभु की स्तुति करने योग्य होने से 'अर्क' है। ऋक् यजुः साम तीन रूप से धारण करने योग्य होने से 'त्रिधातु' और सात छन्द उसके प्राण हैं । अथवा – ( यस्मै उत्तमे पदे ) उत्तम पद, पर विद्यमान जिसके लिये ( सप्तशीर्षाणम् त्रिधातुम् आनृचुः ) सात शिरों वाला, तीनों लोकों का धारक बतलाते हैं वही इन समस्त विश्वों का शासक और शक्तिप्रकाशक है। प्रभु के सात शिर सप्त भुवन वा सप्त विकृति हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    श्रुष्टिगुः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता। छन्दः— १, ३, ९ निचृद् बृहती। ५ विराड् बृहती। ७ बृहती। २ विराट् पंक्ति:। ४, ६, ८, १० निचृत् पंक्तिः॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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