ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 63/ मन्त्र 2
दि॒वो मानं॒ नोत्स॑द॒न्त्सोम॑पृष्ठासो॒ अद्र॑यः । उ॒क्था ब्रह्म॑ च॒ शंस्या॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वः । मान॑म् । न । उत् । स॒द॒न् । सोम॑ऽपृष्ठासः । अद्र॑यः । उ॒क्था । ब्रह्म॑ । च॒ । शंस्या॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवो मानं नोत्सदन्त्सोमपृष्ठासो अद्रयः । उक्था ब्रह्म च शंस्या ॥
स्वर रहित पद पाठदिवः । मानम् । न । उत् । सदन् । सोमऽपृष्ठासः । अद्रयः । उक्था । ब्रह्म । च । शंस्या ॥ ८.६३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 63; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 42; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 42; मन्त्र » 2
विषय - प्रभु वा शासक का सर्वोपरि पद।
भावार्थ -
जिस प्रकार ( अद्रयः ) मेघ ( सोम-पृष्ठासः ) जल वर्षणकारी होकर भी (दिवः मानं न उत् सदन्ति) सूर्य का पैमाना नहीं पाते, वा ऊपर उठकर भी सूर्य तक नहीं जा सकते उसी प्रकार ( सोम-पृष्ठासः ) अभिषिक्त राजा वा नायक को अपनी पीठ पर रखने वाले, तदधीन ( अद्रयः ) सेना के जन ( दिवः मानं नः उत् सदन् ) तेजस्वी राजा के मान-प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं हो सकते, वे उससे उच्च पद नहीं पा सकते। इसी प्रकार ( सोम-पृष्ठासः ) सोम अर्थात् सर्वोत्पादक प्रभु के भक्त ( अद्रयः ) अविनाशी, धर्म मेघस्थ योगीजन वा ‘सोम’, वीर्य द्वारा पुष्ट, ऊर्ध्वरेता जन ( दिवः मानं ) ज्ञानमय तेजोमय प्रभु के ज्ञान, वेद को ( न उत् सदन् ) नहीं छोड़ सकते। वह प्रभु का ज्ञान ( उक्था ) वचन योग्य उत्तम मन्त्र ( ब्रह्म च ) महान् वेद ( शंस्या ) स्तुति करने, उपदेश देने योग्य होते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ १—११ इन्द्रः। १२ देवा देवताः॥ छन्द:—१, ४, ७ विराडनुष्टुप्। ५ निचुदनुष्टुप्। २, ३, ६ विराड् गायत्री। ८, ९, ११ निचृद् गायत्री। १० गायत्री। १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
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