ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 70/ मन्त्र 15
क॒र्ण॒गृह्या॑ म॒घवा॑ शौरदे॒व्यो व॒त्सं न॑स्त्रि॒भ्य आन॑यत् । अ॒जां सू॒रिर्न धात॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठक॒र्ण॒ऽगृह्य॑ । म॒घऽवा॑ । शौ॒र॒ऽदे॒व्यः । व॒त्सम् । नः॒ । त्रि॒ऽभ्यः । आ । अ॒न॒य॒त् । अ॒जाम् । सू॒रिः । न । धात॑वे ॥
स्वर रहित मन्त्र
कर्णगृह्या मघवा शौरदेव्यो वत्सं नस्त्रिभ्य आनयत् । अजां सूरिर्न धातवे ॥
स्वर रहित पद पाठकर्णऽगृह्य । मघऽवा । शौरऽदेव्यः । वत्सम् । नः । त्रिऽभ्यः । आ । अनयत् । अजाम् । सूरिः । न । धातवे ॥ ८.७०.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 70; मन्त्र » 15
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
विषय - सेना वशकारी राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
( सूरिः ) विद्वान् पुरुष ( धातवे ) दुग्धपान कराने के लिये जिस प्रकार ( अजां कर्णगृह्य ) बकरी के कान पकड़ कर ( वत्सं प्रति आनयत् ) बछड़े के पास लाता वा बच्चे को कान पकड़ कर दूध पिलाने के लिये बकरी के पास ले जाता है उसी प्रकार ( शौर-देव्यः ) शूर और विजीगीषु ( मघवा ) उत्तम ऐश्वर्यवान् राजा ( सूरिः ) उत्तम विद्वान् के समान ( नः ) हमारे ( वत्सं ) राष्ट्र में बसे प्रजाजन को और (अजां ) शत्रु को उखाड़ देने वाली सेना को भी ( कर्णगृह्य ) कान से पकड़ कर अर्थात् कर्ण से श्रवण करने योग्य उपदेश, आज्ञा-वचन सुनाकर ( त्रिभ्यः आनयत् ) तीनों प्रकार के कष्टों से परे रक्खे। वा ( त्रिभ्यः ) तीनों प्रकार के सुखों के लिये सन्मार्ग से ले जावे। इति दशमो वर्गः॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पुरुहन्मा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृद् बृहती। ५, ७ विराड् बृहती। ३ निचृद् बृहती। ८, १० आर्ची स्वराड् बृहती। १२ आर्ची बृहती। ९, ११ बृहती। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ४ पंक्ति:। १३ उष्णिक्। १५ निचृदुष्णिक्। १४ भुरिगनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
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