ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 70/ मन्त्र 15
क॒र्ण॒गृह्या॑ म॒घवा॑ शौरदे॒व्यो व॒त्सं न॑स्त्रि॒भ्य आन॑यत् । अ॒जां सू॒रिर्न धात॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठक॒र्ण॒ऽगृह्य॑ । म॒घऽवा॑ । शौ॒र॒ऽदे॒व्यः । व॒त्सम् । नः॒ । त्रि॒ऽभ्यः । आ । अ॒न॒य॒त् । अ॒जाम् । सू॒रिः । न । धात॑वे ॥
स्वर रहित मन्त्र
कर्णगृह्या मघवा शौरदेव्यो वत्सं नस्त्रिभ्य आनयत् । अजां सूरिर्न धातवे ॥
स्वर रहित पद पाठकर्णऽगृह्य । मघऽवा । शौरऽदेव्यः । वत्सम् । नः । त्रिऽभ्यः । आ । अनयत् । अजाम् । सूरिः । न । धातवे ॥ ८.७०.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 70; मन्त्र » 15
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of wealth, power and glory, benefactor of the brave and holy, holds in his power the cherished wealth of perceptible knowledge and awareness which he showers for us from the three regions of heaven, earth and sky, just as, at our human level, the master and sagely scholar holds the eternal Vedic Word for us to hear and enjoy.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर ज्याला देऊ इच्छितो त्याला अनेक उपयांनी देतो. जणू तिन्ही लोकांमधून कुठूनही आणून त्याला अभिलाषित असेल ते देतो. कारण तो महा धनेश्वर आहे. हे माणसांनो! त्याची उपासना प्रेमाने करा. ॥१५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
मघवा=परमैश्वर्य्ययुक्तः । शौरदेव्यः=शूराणाम् । देवानां च हितकारी इन्द्रवाच्येश्वरः । नः=अस्मान् प्रति त्रिभ्यो=लोकेभ्यः । कर्णगृह्य=कर्णं गृहीत्वा । वत्सम् । आनयत्=आनयति । न=यथा । धातवे=पानाय । सूरिः । अजां नयति ॥१५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(मघवा) परमैश्वर्य्यशाली (शौरदेव्यः) शूरों और देवों का हितकारी ईश्वर (नः) हमको (त्रिभ्यः) तीनों लोकों से (कर्णगृह्य) कान पकड़ कर (वत्सम्) वत्स लाकर देता है, (न) जैसे (सूरिः) स्वामी (धातवे) पिलाने के लिये (अजाम्) बकरी को लाता है ॥१५ ॥
भावार्थ
ईश्वर जिसको देना चाहता है, उसको अनेक उपायों से देता है । मानो तीनों लोकों में से कहीं से आनकर उसको अभिलषित देता है, क्योंकि वह महाधनेश्वर है । हे मनुष्यों ! उसकी उपासना प्रेम से करो ॥१५ ॥
विषय
सेना वशकारी राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( सूरिः ) विद्वान् पुरुष ( धातवे ) दुग्धपान कराने के लिये जिस प्रकार ( अजां कर्णगृह्य ) बकरी के कान पकड़ कर ( वत्सं प्रति आनयत् ) बछड़े के पास लाता वा बच्चे को कान पकड़ कर दूध पिलाने के लिये बकरी के पास ले जाता है उसी प्रकार ( शौर-देव्यः ) शूर और विजीगीषु ( मघवा ) उत्तम ऐश्वर्यवान् राजा ( सूरिः ) उत्तम विद्वान् के समान ( नः ) हमारे ( वत्सं ) राष्ट्र में बसे प्रजाजन को और (अजां ) शत्रु को उखाड़ देने वाली सेना को भी ( कर्णगृह्य ) कान से पकड़ कर अर्थात् कर्ण से श्रवण करने योग्य उपदेश, आज्ञा-वचन सुनाकर ( त्रिभ्यः आनयत् ) तीनों प्रकार के कष्टों से परे रक्खे। वा ( त्रिभ्यः ) तीनों प्रकार के सुखों के लिये सन्मार्ग से ले जावे। इति दशमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुहन्मा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृद् बृहती। ५, ७ विराड् बृहती। ३ निचृद् बृहती। ८, १० आर्ची स्वराड् बृहती। १२ आर्ची बृहती। ९, ११ बृहती। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ४ पंक्ति:। १३ उष्णिक्। १५ निचृदुष्णिक्। १४ भुरिगनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
कर्णगृह्या 'त्रिभ्यः '
पदार्थ
[१] (मघवा) = ऐश्वर्यशाली, (शौरदेव्यः) = [ शूरश्च असौ देवश्च, स्वार्थे ष्यञ् ] शत्रुओं को शीर्ण करनेवाला, प्रकाशमय प्रभु (नः) = हमें (कर्णगृह्या) = कानों से पकड़कर (त्रिभ्य आनयत्) = ' ज्ञान, कर्म व उपासना' इन तीनों के लिए प्राप्त कराता है। उचित दण्ड देता हुआ वह प्रभु हमें ठीक मार्ग से चलाकर मस्तिष्क में ज्ञानसम्पन्न, हाथों में यज्ञादि कर्मोंवाला तथा हृदय में उपासनावाला बनाता है । [२] प्रभु हमें इन तीनों के लिए इस प्रकार प्राप्त करता हैं (न) = जैसे (सूरिः) = एक समझदार व्यक्ति (धातवे) = दूध पीने के लिए (वत्सं) = मेमने को [बच्चे को] (अजां) = बकरी को प्राप्त कराता है। उस विद्वान् को वत्स से वैर नहीं होता। इसी प्रकार प्रभु भी हमें हित की भावना से ही कानों में पकड़कर 'ज्ञान' आदि की ओर ले चलते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु मघवा हैं, शौरदेव्य हैं। वे हमें कानों से पकड़कर 'ज्ञान, कर्म व उपासना' की ओर ले चलते हैं। ज्ञान, कर्म व उपासना में चलता हुआ यह 'सुदीति' उत्तम दीप्तिवाला बनता है [दी-to shine] यह सबके लिए सुखों का सेचन करनेवाला 'पुरुमीढ' होता है। यह प्रार्थना करता है कि-
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