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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 70/ मन्त्र 4
    ऋषिः - पुरुहन्मा देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अषा॑ळ्हमु॒ग्रं पृत॑नासु सास॒हिं यस्मि॑न्म॒हीरु॑रु॒ज्रय॑: । सं धे॒नवो॒ जाय॑माने अनोनवु॒र्द्याव॒: क्षामो॑ अनोनवुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अषा॑ळ्हम् । उ॒ग्रम् । पृत॑नासु । स॒स॒हिम् । यस्मि॑न् । म॒हीः । उ॒रु॒ऽज्रयः॑ । सम् । धे॒नवः॑ । जाय॑माने । अ॒नो॒न॒वुः॒ । द्यावः॑ । क्षामः॑ । अ॒नो॒न॒वुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अषाळ्हमुग्रं पृतनासु सासहिं यस्मिन्महीरुरुज्रय: । सं धेनवो जायमाने अनोनवुर्द्याव: क्षामो अनोनवुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अषाळ्हम् । उग्रम् । पृतनासु । ससहिम् । यस्मिन् । महीः । उरुऽज्रयः । सम् । धेनवः । जायमाने । अनोनवुः । द्यावः । क्षामः । अनोनवुः ॥ ८.७०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 70; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Unchallengeable, awful, victorious in cosmic dynamics, in whose pervasive presence great and tempestuous stars and planets, earths and heavens, all in unison move in order and do homage in reverence, such is Indra.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! तो जगदीश महान्यायी व महा उग्र आहे. ज्याच्या आज्ञेत संपूर्ण जग चालत आहे. त्याच्या कीर्तीचे गान करा. ॥४॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    तमीशं स्तौमि । कीदृशम् । असाळ्हम्=दुष्टान् प्रति असहनशीलम् । उग्रम्=दण्डविधायकम् । पुनः । जगदुपद्रवकारिणीषु । पृतनासु । सासहिम्=शासकं विनाशकञ्च । यस्मिन् जायमाने=सर्वत्र विद्यमाने सति । उरुज्रयः=महावेता । महीः=महत्यः । धेनवः+सम्+ अनोनवुः=नियमेन प्रचलन्ति । धेनुशब्दस्यार्थं स्वयमेव करोति । द्यावः=द्युलोकः । क्षामः=पृथिव्यादिलोका इति । धेनव इत्यस्यैव द्यावः क्षामश्चेत्यनुवादः ॥४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    उस परमात्मा की स्तुति करता हूँ, जो (असाळ्हम्) दुष्टों को कभी क्षमा नहीं करता । जिस कारण (उग्रम्) वह दण्डविधाता है और जगत् की उपद्रवकारी (पृतनासु) सेनाओं का (सासहिम्) शासक और विनाशक है । (यस्मिन्+जायमाने) जिसके सर्वत्र विद्यमान होने के कारण (उरुज्रयः) महा वेगवान् (महीः) बड़े (धेनवः) द्युलोक और पृथिव्यादिलोक (सम्+अनोनवुः) नियम से चल रहे हैं । धेनुशब्दार्थ स्वयं श्रुति करती है, (द्यावः+क्षामः) द्युलोक और पृथिव्यादिलोक ॥४ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! वह जगदीश महान्यायी और महोग्र है, जिसकी आज्ञा में यह सम्पूर्ण जगत् चल रहा है, उसकी कीर्ति का गान करो ॥४ ॥

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    विषय

    प्रभु परमेश्वर की गुण-स्तुति।

    भावार्थ

    ( यस्मिन् जायमाने) जिसके प्रादुर्भाव होते हुए ( उरुज्रयः) अति वेग से युक्त, (महीः) बहुत सी भूवासिनी प्रजाएं वा सेनायें, ( धेनवः ) वत्स के प्रति गौवों के समान स्नेहयुक्त होकर, वा वाणियां उस ( अषाढं) अपराजित, ( उग्रं ) बलवान् ( पृतनासु सासहिं ) संग्रामों में विजयकारी की (सं अनोनवु:) मिलकर स्तुति करती हैं, ( द्यावः क्षामः ) तेजस्वी सेनाएं वा कामनावान् प्रजाएं भी उसकी ( सं अनोनवु:) मिलकर स्तुति करती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पुरुहन्मा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृद् बृहती। ५, ७ विराड् बृहती। ३ निचृद् बृहती। ८, १० आर्ची स्वराड् बृहती। १२ आर्ची बृहती। ९, ११ बृहती। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ४ पंक्ति:। १३ उष्णिक्। १५ निचृदुष्णिक्। १४ भुरिगनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    द्यावः क्षामः अनोनवुः

    पदार्थ

    [१] (द्यावः) = ये द्युलोक में होनेवाले सूर्य व (क्षामः) = पृथिवीलोक उस प्रभु का ही (अनोनवुः) = अतिशयेन स्तवन करते हैं जो (अषाढं) = शत्रुओं से कभी पराभूत नहीं होते, (उग्रं) = उद्गूर्ण बलवाले व तेजस्वी हैं तथा (पृतनासु सासहिम्) = शत्रुसैन्यों में पराभव को करनेवाले हैं। [२] (यस्मिन् जायमाने) = जिसके प्रादुभूर्त होने पर (मही:) = महत्त्वपूर्ण, (उरुज्रयः) = महान् वेग वाली, अर्थात् हमें क्रियाओं में प्रेरित करनेवाली (धेनवः) = वेदवाणीरूप गौवें (सम् अनोनवुः) = सम्यक् शब्दायमान हो उठती है। हृदय में प्रभु का प्रकाश हुआ और वेदज्ञान हमें उस उस क्रिया में प्रेरित करने लगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- ये सूर्य आदि पदार्थ प्रभु की महिमा का ही प्रकाश कर रहे हैं। प्रभु का प्रकाश हृदय में होनेपर वेदवाणी हमारे लिए उत्कृष्ट कर्मों की प्रेरणा देनेवाली होती है।

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