ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 70/ मन्त्र 13
सखा॑य॒: क्रतु॑मिच्छत क॒था रा॑धाम श॒रस्य॑ । उप॑स्तुतिं भो॒जः सू॒रिर्यो अह्र॑यः ॥
स्वर सहित पद पाठसखा॑यः । क्रतु॑म् । इ॒च्छ॒त॒ । क॒था । रा॒धा॒म॒ । श॒रस्य॑ । उप॑ऽस्तुतिम् । भो॒जः । सू॒रिः । यः । अह्र॑यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सखाय: क्रतुमिच्छत कथा राधाम शरस्य । उपस्तुतिं भोजः सूरिर्यो अह्रयः ॥
स्वर रहित पद पाठसखायः । क्रतुम् । इच्छत । कथा । राधाम । शरस्य । उपऽस्तुतिम् । भोजः । सूरिः । यः । अह्रयः ॥ ८.७०.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 70; मन्त्र » 13
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O friends, try freely to do good by way of yajna, else how shall we serve Indra, lord of the bow and arrow, with worship and adoration? He is the great benefactor and ruler, light giver, abundant and gracious.
मराठी (1)
भावार्थ
याचा आशय स्पष्ट आहे की, प्रत्येक माणसाने शुभ कर्म केले पाहिजे. यज्ञ इत्यादी करण्याने केवळ आत्म्याचाही उपकार होत नाही तर देशवासियांनाही यामुळे लाभ होतो व दुराचारापासून बचाव होतो. शरीरात रोग होत नाही. मृत्यूपर्यंत सुखाने जीवन व्यतीत होते. ॥१३॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे सखायः=सुहृदः ! यूयं क्रतुं कर्म । अन्यथा शरस्य=दुष्टविनाशकस्य इन्द्रस्य । शॄ हिंसायाम् । कथा=कथम् । राधाम=आराधयाम । कथञ्च । तस्योपस्तुतिम् । करवाम । य इन्द्रः । भोजः=भोजयिता सुखयिता । सूरिः=सर्वज्ञः । यः+अह्रयः=अविनश्वरः ॥१३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(सखायः) हे मित्रो ! (क्रतुम्) शुभकर्म की (इच्छत) इच्छा करो, अन्यथा (शरस्य) वृत्रहन्ता उस परमात्मा की (कथा+राधाम) कैसे आराधना कर सकेंगे, कैसे (उपस्तुतिम्) उसकी प्रिय स्तुति करेंगे । अतः शुभ कर्म करो । जो ईश (भोजः) सब प्रकार से सुख पहुँचानेवाला है । (सूरिः) सर्वज्ञ और (यः) जो (अह्रयः) अविनश्वर है ॥१३ ॥
भावार्थ
इसका आशय विस्पष्ट है प्रत्येक मनुष्य को शुभ कर्म करना चाहिये । यज्ञादि करने से केवल आत्मा का ही उपकार नहीं होता, किन्तु देशवासियों को भी इससे बहुत लाभ पहुँचता है और दुराचारों से बचता है, शरीर में रोग नहीं होता । मरणपर्य्यन्त सुख से जीवन बीतता है ॥१३ ॥
विषय
राजा के कर्त्तव्य और बन्धनमोचक प्रभु।
भावार्थ
हे ( सखायः ) मित्रगणो ! आप लोग ( क्रतुम् इच्छत ) ज्ञान और कर्म की इच्छा करो और हम लोग ( शरस्य ) वाणवत् शत्रुनाशकारी वीर पुरुष या बल को ( कथा ) किसी प्रकार से भी ( राधाम ) अपने वश करें। और ( यः ) जो ( भोजः ) सबका पालक, रक्षक, भोक्ता, ( सूरिः ) विद्वान् ( अह्नयः ) अहीन, अपराजित है उसकी ( उप-स्तुतिम् इच्छत ) स्तुति करना चाहो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुहन्मा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृद् बृहती। ५, ७ विराड् बृहती। ३ निचृद् बृहती। ८, १० आर्ची स्वराड् बृहती। १२ आर्ची बृहती। ९, ११ बृहती। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ४ पंक्ति:। १३ उष्णिक्। १५ निचृदुष्णिक्। १४ भुरिगनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'भोजः सूरिः अह्रयः ' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (सखायः) = मित्रो ! (क्रतुं) = यज्ञ, शक्ति व प्रज्ञान की (इच्छत) = कामना करो। (कथा) = किसप्रकार हम (शरस्य) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभु की (उपस्तुतिं राधाम) = आराधना कर सकें। यज्ञों के द्वारा ही तो प्रभु का पूजन होगा। प्रज्ञान से व शक्ति के सम्पादन से ही तो हम प्रभु के प्रिय बन पाएँगे। [२] वे प्रभु (भोजः) = सबका पालन करनेवाले हैं। (सूरि:) = सबको प्रेरणा देनेवाले हैं [षू प्रेरणे] । (यः) = जो प्रभु (अह्वयः) = अतिशयेन बुद्धिमान् हैं अथवा शुद्ध होने से लज्जाशून्य हैं।
भावार्थ
भावार्थ-वे प्रभु पालन करनेवाले, प्रेरणा देनेवाले व अतिशयेन बुद्धिमान् हैं। इस प्रभु का हम 'यज्ञों, शक्तियों व प्रज्ञानों' के द्वारा आराधन करें।
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