ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 70/ मन्त्र 5
यद्द्याव॑ इन्द्र ते श॒तं श॒तं भूमी॑रु॒त स्युः । न त्वा॑ वज्रिन्त्स॒हस्रं॒ सूर्या॒ अनु॒ न जा॒तम॑ष्ट॒ रोद॑सी ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । द्यावः॑ । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । श॒तम् । श॒तम् । भूमीः॑ । उ॒त । स्युरिति॒ स्युः । न । त्वा॒ । व॒ज्रि॒न् । स॒हस्र॑म् । सूर्याः॑ । अनु॑ । न । जा॒तम् । अ॒ष्ट॒ । रोद॑सी॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्द्याव इन्द्र ते शतं शतं भूमीरुत स्युः । न त्वा वज्रिन्त्सहस्रं सूर्या अनु न जातमष्ट रोदसी ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । द्यावः । इन्द्र । ते । शतम् । शतम् । भूमीः । उत । स्युरिति स्युः । न । त्वा । वज्रिन् । सहस्रम् । सूर्याः । अनु । न । जातम् । अष्ट । रोदसी इति ॥ ८.७०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 70; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of thunder, if there were a hundred heavens, and if there were a hundred earths, they would not be able to rival you. Not a thousand suns, nor heavens, earths and skies together would match you at the rise in manifestation.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर सर्व लोकांपेक्षा मोठा व सर्वत्र व्यापक आहे. सर्व लोक पृथक् पृथक् किंवा सर्व एकत्र मिळूनही त्याला व्याप्त करू शकत नाहीत. ॥५॥
संस्कृत (1)
विषयः
परमात्मनोऽपरिमेयत्वं दर्शयति ।
पदार्थः
हे इन्द्र=परमैश्वर्य्य ! यद्=यदि । एतत्सदृश्यः । शतम्=बहवः । द्यावः=द्युलोकाः । उत=अपि च । भूमीः=भूमयः । स्युः । तथापि । ते=तव ताभ्यां परिमाणं भवितुं नार्हति । हे वज्रिन् ! सहस्रं सूर्य्या अपि त्वा=त्वाम् । नाश्नुवन्ति । जातं=सर्वत्र व्याप्तम् । त्वां=किञ्चन नाष्ट=किमपि न व्याप्नोति किंबहुना । इमे रोदसी=द्यावापृथिव्यौ । नाश्नुवाते त्वाम् । सर्वेभ्योऽतिरिच्यस इत्यर्थः । ज्यायान् पृथिव्या ज्यायानन्तरिक्षाद् ज्यायान् दिवो ज्यायानेभ्यो लोकेभ्यः ॥५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
परमात्मा का अपरिमेयत्व दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमैश्वर्य्यशाली देव ! (यद्) यदि एतत्सदृश (शतम्+द्यावः) शतशः द्युलोक (स्युः) हों (उत) और (भूमीः) शतशः पृथिवी हों, तथापि (ते) तेरा परिमाण इन दोनों से नहीं हो सकता । (वज्रिन्) हे दण्डधर ! (सहस्रम्+सूर्य्याः) एक सहस्र सूर्य्य भी (त्वा+न) तुझको व्याप्त नहीं कर सकते । हे भगवन् ! किंबहुना, कोई भी वस्तु (जातम्) सर्वत्र व्याप्त तुझको (न+अन्वष्ट) व्याप्त नहीं कर सकती । (रोदसी) यह सम्पूर्ण द्युलोक और पृथिव्यादिलोक मिलकर भी तुझको व्याप नहीं सकता, क्योंकि पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक और सम्मिलित सब लोकों से तू बड़ा है ॥५ ॥
विषय
पक्षान्तर में वीर पराक्रमी शासक का वर्णन।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( ते शतं द्यावः ) तेरी सैकड़ों, बहुत सी तेजस्विनी सेनाएं हों, ( उत ) और ( शतं भूमी: स्युः ) सैकड़ों भूमियें हों, हे ( वज्रिन् ) बलवीर्यशालिन् ! ( त्वा ) तुझे ( सहस्रं सूर्याः ) हज़ारों सूर्य भी ( न अनु स्युः ) तेरे बराबर नहीं, ( जातं त्वा अनु रोदसी ) उत्पन्न या प्रकट हुए तेरे समान दुष्टों को रुलाने वाली सेना भी (न अष्ट) तुझे नहीं व्याप सकती, तेरा स्थान नहीं पा सकती। ( २ ) सैकड़ों सूर्य पृथिवी आदि लोक भी परमेश्वर के बराबर नहीं, न भूमि और आकाश उसको व्याप सकते हैं। इत्यष्टमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुहन्मा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृद् बृहती। ५, ७ विराड् बृहती। ३ निचृद् बृहती। ८, १० आर्ची स्वराड् बृहती। १२ आर्ची बृहती। ९, ११ बृहती। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ४ पंक्ति:। १३ उष्णिक्। १५ निचृदुष्णिक्। १४ भुरिगनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
ज्यायान् एभ्यः लोकेभ्यः
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यद्) = यदि (द्यावः) = ये द्युलोक (शतं) = सैंकड़ों (स्युः) = हों, तो भी (ते) = तेरा (न) = [अश्नुवन्ति] व्यापन नहीं कर सकते । (उत) = और (शतं भूमी:) = सैंकड़ों भूमियाँ हो तो ये भी तेरा व्यापन नहीं कर पातीं। [२] हे (वज्रिन्) = वज्रहस्त प्रभो ! (त्वा) = आपको (सहस्रं सूर्या:) = सहस्रों भी सूर्य (न) = प्रकाशित नहीं कर पाते। (जातं) = सृष्टि से पहले ही प्रादुर्भूत हुए हुए आपको (रोदसी) = द्यावापृथिवी (न अनु अष्ट) = व्याप्त करनेवाले नहीं होते।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु को सहस्रों भी द्युलोक, पृथिवीलोक व सूर्य व्याप्त नहीं कर पाते। प्रभु इनसे महान् हैं।
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