ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 70/ मन्त्र 6
आ प॑प्राथ महि॒ना वृष्ण्या॑ वृष॒न्विश्वा॑ शविष्ठ॒ शव॑सा । अ॒स्माँ अ॑व मघव॒न्गोम॑ति व्र॒जे वज्रि॑ञ्चि॒त्राभि॑रू॒तिभि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । प॒प्रा॒थ॒ । म॒हि॒ना । वृष्ण्या॑ । वृ॒ष॒न् । विश्वा॑ । श॒वि॒ष्ठ॒ । शव॑सा । अ॒स्मान् । अ॒व॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । गोऽम॑ति । व्र॒जे । वज्रि॑न् । चि॒त्राभिः॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ पप्राथ महिना वृष्ण्या वृषन्विश्वा शविष्ठ शवसा । अस्माँ अव मघवन्गोमति व्रजे वज्रिञ्चित्राभिरूतिभि: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । पप्राथ । महिना । वृष्ण्या । वृषन् । विश्वा । शविष्ठ । शवसा । अस्मान् । अव । मघऽवन् । गोऽमति । व्रजे । वज्रिन् । चित्राभिः । ऊतिऽभिः ॥ ८.७०.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 70; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of the thunderbolt, master and controller of world’s wealth, honour and power, most potent and lord of showers of generosity, with your generous and creative power and grandeur you pervade the universe. Pray protect, guide and promote us by your various and wondrous modes of protection and progress in our search for development of lands and cows, knowledge, language and culture.
मराठी (1)
भावार्थ
देव स्वत: संपूर्ण जगाला सुखाने पूर्ण करत आहे. तेव्हा धन्यवादासाठी त्याची कीर्ती गा. ॥६॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे वृषन्=अभीष्टफलवर्षक ! हे शविष्ठ=अतिशयबलवन् । हे मघवन्=महाधन ! हे वज्रिन्=न्यायिन् ! जगदीश ! त्वं स्वकीयेन । महिना=महत्त्वेन । वृष्ण्या=आनन्दप्रदेन । शवसा=शक्त्या । विश्वा=विश्वानि जगन्ति । आपप्रथ=आपूरयसि । तथा । गोमति+व्रजे= गवादिपशुयुक्ते गोष्ठे । चित्राभिर्बहुविधाभिः । ऊतिभिः=रक्षाभिः । अस्मान् । अव=रक्ष ॥६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(वृषन्) हे अभीष्टफलवर्षक (शविष्ठ) हे परमशक्तिशालिन् (मघवन्) हे महाधनेश्वर (वज्रिन्) हे न्यायकारिन् देव ! तू (महिना) स्वकीय महिमा से (वृष्ण्या) आनन्दवर्षाकारक (शवसा) बल द्वारा (विश्वा) समस्त जगत् को (आ+पप्राथ) अच्छे प्रकार पूर्ण कर रहा है, अतः हे भगवन् ! (गोमति+व्रजे) गवादि पशुयुक्त गोष्ठ में (चित्राभिः+ऊतिभिः) विविध रक्षाओं और साहाय्यों से (अस्मान्+अव) हमारी रक्षा और साहाय्य कर ॥६ ॥
भावार्थ
जिस कारण वह देव स्वयं सम्पूर्ण जगत् को सुखों से पूर्ण कर रहा है, अतः धन्यवादार्थ उसकी कीर्ति गाओ ॥६ ॥
विषय
उसके कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( वृषन् ) बलवन् ! प्रजा पर सुखों और शत्रु पर शस्त्रअस्त्रों की वर्षा करने हारे ! हे ( शविष्ठ ) सबसे अधिक शक्तिशालिन् ! तू ( महिना शवसा ) अपने महान् बल से ( विश्वा ) समस्त ( वृषणा ) बलयुक्त कार्यों और सैन्यों को ( अ पप्राथ ) विस्तारित कर। और हे ( वज्रिन् ) बलशालिन् ! हे ( मघवन् ) धनशालिन् ! ( चित्राभिः ऊतिभिः ) नाना अद्भुत रक्षाकारिणी क्रियाओं, सेनाओं से ( गोमति व्रजे ) भूमियों से युक्त कार्य या समूह में ( अस्मान् अव ) हमारी रक्षा कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुहन्मा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृद् बृहती। ५, ७ विराड् बृहती। ३ निचृद् बृहती। ८, १० आर्ची स्वराड् बृहती। १२ आर्ची बृहती। ९, ११ बृहती। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ४ पंक्ति:। १३ उष्णिक्। १५ निचृदुष्णिक्। १४ भुरिगनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
शवसा आपप्राथ
पदार्थ
[१] हे (वृषन्) = सुखों का वर्षण करनेवाले (शविष्ठ) = अतिशयेन शक्तिशालिन् प्रभो ! आप (वृष्ण्या) = सुखों का वर्षण करनेवाली (महिना) = अपनी महिमा से (विश्वा) = सबको (शवसा) = बल से (आपप्राथ) = आपूरित करते हैं। प्रभु का जो भी धारण करता है, वह प्रभु की शक्ति से शक्तिसम्पन्न बनता है। [२] हे (वज्रिन्) = वज्रहस्त (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (अस्मान्) = हमें (गोमति व्रजे) = इस इन्द्रियरूप गौओंवाले शरीररूप बाड़े में (चित्राभिः ऊतिभिः) = अद्भुत रक्षणों के द्वारा (अव) = रक्षित करिये।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही हमें शक्ति से प्रपूरित करते हैं। प्रभु के अनुग्रह से हमारा प्रशस्त इन्द्रियरूप गौवोंवाला होता है।
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