ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 70/ मन्त्र 10
त्वं न॑ इन्द्र ऋत॒युस्त्वा॒निदो॒ नि तृ॑म्पसि । मध्ये॑ वसिष्व तुविनृम्णो॒र्वोर्नि दा॒सं शि॑श्नथो॒ हथै॑: ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । ऋ॒त॒ऽयुः । त्वा॒ऽनिदः॑ । नि । तृ॒म्प॒सि॒ । मध्ये॑ । व॒सि॒ष्व॒ । तु॒वि॒ऽनृ॒म्ण॒ । ऊ॒र्वोः । नि । दा॒सम् । शि॒श्न॒थः॒ । हथैः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं न इन्द्र ऋतयुस्त्वानिदो नि तृम्पसि । मध्ये वसिष्व तुविनृम्णोर्वोर्नि दासं शिश्नथो हथै: ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । नः । इन्द्र । ऋतऽयुः । त्वाऽनिदः । नि । तृम्पसि । मध्ये । वसिष्व । तुविऽनृम्ण । ऊर्वोः । नि । दासम् । शिश्नथः । हथैः ॥ ८.७०.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 70; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lover and promoter of truth and rectitude, you fulfil us with your gifts and reduce the maligners of divinity to deprivation. O lord of boundless wealth and power, raise us to the heights of the skies in the midst of heaven and earth, and strike down the violent and the destroyer with blows of retribution.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर सत्यप्रिय आहे. असत्यवादी व उपद्रवी यांना तो दंड देतो व सत्यवादींना दान देतो. त्यासाठी हे माणसांनो! सत्यप्रिय बना. ॥१०॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! यतस्त्वम् । ऋतयुः=सत्यकामोऽसि । अतः । त्वानिदः=तव निन्दकात् पुरुषात् सकाशात् । नोऽस्मान् । नि=नितराम् । तृम्पसि=तर्पयसि । स्वनिन्दकान् विनाशयसि अस्मांस्तु पालयसीत्यर्थः । हे तुविनृम्ण=बहुधन ! ऊर्वोः=द्यावापृथिवीरूपयोः जङ्घयोः मध्ये अस्मान् । वसिष्व=सुखेन वासय । दासञ्च । हथैः=हननास्त्रैः । नि+शिश्नथः=दूरी कुरु ॥१० ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! जिस कारण (त्वम्) तू (ऋतयुः) सत्यप्रिय और सत्यकामी है, अतः (त्वानिदः) नास्तिक, चोर, डाकू आदि दुष्ट की अपेक्षा (नः+नि+तृम्पसि) हमको अतिशय तृप्त करता है । (तुविनृम्ण) हे समस्त धनशाली इन्द्र ! (ऊर्वोः) द्युलोक और पृथिवीलोक के (मध्ये) मध्य हम लोगों को सुख से (वसिष्व) बसा और (दासम्) दुष्ट को (हथैः) हननास्त्र से (नि+शिश्नथः) हनन कर ॥१० ॥
भावार्थ
जिस कारण ईश्वर सत्यप्रिय है, अतः असत्यवादी और उपद्रवियों को दण्ड देता है और सत्यवादियों को दान । अतः हे मनुष्यों ! सत्यप्रिय बनो ॥१० ॥
विषय
पितावत् प्रभु।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे शत्रुहन्तः ! ( त्वं ) तू (नः) हमारे (ऋत-यु:) व्यवहार ज्ञान, यज्ञादि को चाहने वाला है। तू (त्वा-निदः) अपने निन्दकों को (नितृम्पसि) विनष्ट करता है। हे (तुवि-नृम्ण) बहुत ऐश्वर्य के स्वामिन् ! तू ( ऊर्वो: ) अपनी जंघाओं पर हमें, बालक को पिता के तुल्य अथवा ( ऊर्वोः ) अपनी बड़ी विशाल बाहुओं के आश्रय पर ( वसिष्व ) बसा, और ( दासं ) विनाशक दुष्ट को ( हथैः ) शस्त्रों से ( नि शिश्नथः) शिथिल कर। इति नवमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुहन्मा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृद् बृहती। ५, ७ विराड् बृहती। ३ निचृद् बृहती। ८, १० आर्ची स्वराड् बृहती। १२ आर्ची बृहती। ९, ११ बृहती। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ४ पंक्ति:। १३ उष्णिक्। १५ निचृदुष्णिक्। १४ भुरिगनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'ऋतयु' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वं) = आप (नः) = हमारे साथ (ऋतयुः) = यज्ञों को ऋत को- जोड़नेवाले हैं। हमारे लिए यज्ञों की कामनावाले हैं। हे प्रभो! आप (त्वानिदः) = आपकी निन्दा करनेवालों को भी (नि तृम्पसि) = भोजनादि से प्रीणित करनेवाले हैं। [२] हे (तुविनृम्ण) = महान् धनवाले प्रभो! आप हमें (ऊर्वोः मध्ये वसिष्व) = अपनी जांघों के बीच में निवास कराइए - अपनी गोद में बिठाइए। आपके हम प्रिय हों। आप (दासं) = औरों का उपक्षय करनेवालों को (हथैः) = हनन- साधन आयुधों से (निशिश्नथ:) = निश्चय से हिंसित करते हो।
भावार्थ
भावार्थ- हे प्रभो! आप हमें यज्ञशील बनाइए। हम आपके प्रिय बनें। उपक्षय करनेवाले का आप विनाश करते हैं।
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