ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 70/ मन्त्र 12
त्वं न॑ इन्द्रासां॒ हस्ते॑ शविष्ठ दा॒वने॑ । धा॒नानां॒ न सं गृ॑भायास्म॒युर्द्विः सं गृ॑भायास्म॒युः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । आ॒सा॒म् । हस्ते॑ । श॒वि॒ष्ठ॒ । दा॒वने॑ । धा॒नाना॑म् । न । सम् । गृ॒भा॒य॒ । अ॒स्म॒ऽयुः । द्विः । सम् । गृ॒भा॒य॒ । अ॒स्म॒ऽयुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं न इन्द्रासां हस्ते शविष्ठ दावने । धानानां न सं गृभायास्मयुर्द्विः सं गृभायास्मयुः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । नः । इन्द्र । आसाम् । हस्ते । शविष्ठ । दावने । धानानाम् । न । सम् । गृभाय । अस्मऽयुः । द्विः । सम् । गृभाय । अस्मऽयुः ॥ ८.७०.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 70; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, most powerful ruler and leader, our benefactor, one of our own, in order to benefit us, pray take up in hand these assets of wealth just as one holds roasted rice in hand for distribution, and give it to us. Take up the wealth again, our own man, and distribute that too.
मराठी (1)
भावार्थ
ही प्रेममय प्रार्थना आहे, जसा बालक आपल्या माता-पित्याला खानपानासाठी याचना करतो तसे सर्वांचा समान पिता असलेल्या त्या जगदीश्वराकडून आम्ही आपल्या आवश्यकतेसाठी याचना करावी.॥१२॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! हे शविष्ठ ! त्वमस्मयुः=अस्मान् प्रेम्णा पश्यन् सन् । नः=अस्मभ्यम् । दावने=दानाय । आसाम्=इमा गाः अत्र कर्मणि षष्ठी । धानानां न=धानान् भ्रष्टयवानिव हस्ते । सं+गृभाय=संगृहाण । हे भगवन् ! अस्मयुः=अस्मान्= प्रीणयन् । द्विर्द्विवारं पुनः पुनः । संगृभाय=संगृहाण ॥१२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमैश्वर्य्यशाली (शविष्ठ) हे महा महाशक्तिधारी देव ! (अस्मयुः) हम लोगों के ऊपर प्रेम करता हुआ (त्वम्) तू (नः) हमको (दावने) देने के लिये (आसाम्) इन गौ, भूमि, हिरण्य आदि सम्पत्तियों को (हस्ते+संगृभाय) अपने हाथ में ले लो, (धानानाम्+न) जैसे चर्वण करनेवाला हाथ में धाना लेता है, तद्वत् । हे भगवन् (अस्मयुः) हम लोगों को कृपादृष्टि से देखता और चाहता हुआ तू (द्विः) वारंवार (संगृभाय) उन सम्पत्तियों को हाथ में ले और यथाकर्म हम लोगों में बाँट दे ॥१२ ॥
भावार्थ
यह प्रेममय प्रार्थना है, जैसे बालक अपने पिता माता से खानपान के लिये याचना करता रहता है, तद्वत् सबका समान पिता उस जगदीश से हम अपनी आवश्यकताएँ माँगें ॥१२ ॥
विषय
राजा के कर्त्तव्य और बन्धनमोचक प्रभु।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यप्रद ! ( त्वं ) तू ( नः ) हमें ( दावने ) देने के लिये ( अस्मयुः ) हमारा हितैषी होकर ( आसां ) इन (धानानां ) धाना अर्थात् लाजाओं के समान उज्ज्वल, एवं पुष्टिकारक गौवों और समृद्धियों को ( संगृभाय ) संग्रह कर। अच्छी प्रकार अपने ( हस्ते संगृभाय ) हाथ में, वश में रख, और ( अस्मयुः ) हमें चाहता हुआ, हमारा स्वामी होकर तू उनको ( द्विः संगृभाय ) दो बार या दुगुना भी कर संग्रह कर। राजा प्रजाओं से धनादि बराबर संग्रह करे और आवश्यकता पर प्रजा के हितार्थ ही दुगुना भी ले लेवे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुहन्मा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृद् बृहती। ५, ७ विराड् बृहती। ३ निचृद् बृहती। ८, १० आर्ची स्वराड् बृहती। १२ आर्ची बृहती। ९, ११ बृहती। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ४ पंक्ति:। १३ उष्णिक्। १५ निचृदुष्णिक्। १४ भुरिगनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
द्विः संगृभाय
पदार्थ
[१] हे (शविष्ठ) = अतिशयेन शक्तिमन् (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो ! (त्वं) = आप (नः) = हमारे लिये (दावने) = देने के लिए (आसां धानानां) = इन धानों को (हस्ते) = हाथ में (संगृभाष) = सम्यक् ग्रहण करिये। (अस्मयुः) = हमारे हित की कामनावाले आप (धानानां) = न धानों के समान हमारे लिए आवश्यक वस्तुओं का ग्रहण करिये। [२] ग्रहण ही क्या ? (अस्मयुः) = हमारे हित की कामनावाले आप (द्विःसंगृभाय) = दो बार इन धानों का (संगृभाय) = सम्यक् ग्रहण करिये।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे लिए आवश्यक धन-धान्य की कमी न होने दें।
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