ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 70/ मन्त्र 14
भूरि॑भिः समह॒ ऋषि॑भिर्ब॒र्हिष्म॑द्भिः स्तविष्यसे । यदि॒त्थमेक॑मेक॒मिच्छर॑ व॒त्सान्प॑रा॒दद॑: ॥
स्वर सहित पद पाठभूरि॑ऽभिः । स॒म॒ह॒ । ऋषि॑ऽभिः । ब॒र्हिष्म॑त्ऽभिः । स्त॒वि॒ष्य॒से॒ । यत् । इ॒त्थम् । एक॑म् । एक॑म् । इत् । शर॑ । व॒त्सान् । प॒रा॒ऽददः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
भूरिभिः समह ऋषिभिर्बर्हिष्मद्भिः स्तविष्यसे । यदित्थमेकमेकमिच्छर वत्सान्परादद: ॥
स्वर रहित पद पाठभूरिऽभिः । समह । ऋषिऽभिः । बर्हिष्मत्ऽभिः । स्तविष्यसे । यत् । इत्थम् । एकम् । एकम् । इत् । शर । वत्सान् । पराऽददः ॥ ८.७०.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 70; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of grandeur and glory, destroyer of suffering, ignorance and all difficulties in the way of human happiness, since thus you give gracious gifts of cherished wealth, light and joy to dear and holy beneficiaries, to one and all of them, you are adored by all sages of the sacred grass on the yajna vedi.
मराठी (1)
भावार्थ
त्याची पूजा जेव्हा महान महर्षी करतात तेव्हा आम्ही का करू नये? जेव्हा हे दिसून येते की, जे उपासक आहेत त्यांच्या धनाची क्रमश: वृद्धी होते. परमेश्वर एक एक करून त्याला लाखो देतो. त्यामुळे तोच चिंतनीय आहे. ॥१४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे समह=सर्वपूज्य इन्द्र ! त्वम् । बर्हिष्मद्भिः= सर्वसाधनसम्पन्नैः । भूरिभिः=बहुभिः । ऋषिभिः । स्तविष्यसे=स्तूयसे । हे शर ! यद् यस्त्वम्=इत्थमनेन प्रकारेण । एकमेकमित्=एकमेकमेव । वत्सान्=बहून् वत्सात् । पराददः । सद्भ्यः प्रयच्छसि ॥१४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(समह) हे सर्वपूज्य जगदीश ! तू (बर्हिष्मद्भिः) सर्वसाधनसम्पन्न (भूरिभिः+ऋषिभिः) बहुत ऋषियों से (स्तविष्यसे) पूजित होता है । (शर) हे विघ्नविनाशक ! (यद्) जो तू (इत्थम्) इस प्रकार (एकमेकम्+इत्) एक-एक करके (वत्सान्) बहुत वत्स सत्पुरुषों को (पराददः) दिया करता है ॥१४ ॥
भावार्थ
इसका आशय यह है कि उसकी पूजा जब महा महर्षि करते हैं, तब हम क्यों न करें और जब देखते हैं कि जो उपासक हैं, उनको क्रमशः धन की वृद्धि होती है । परमात्मा एक-एक देकर उसको लाख दे देता है, अतः वही चिन्तनीय है ॥१४ ॥
विषय
राजा के कर्त्तव्य और बन्धनमोचक प्रभु।
भावार्थ
हे राजन् ! हे ( समह ) पूज्य ! तू ( बर्हिष्मद्भिः ) आसनों, यज्ञों वा धन धान्यादि से सम्पन्न, ( भूरिभिः ) इस लोक वा प्रजा से युक्त बहुत से ( ऋषिभिः ) विद्वान् पुरुषों से भी तू ( स्तविष्यसे ) स्तुति किया जाता है। ( यद् ) जो तू ( इत्थम् ) इस प्रकार ( एकम्-एकम् ) एक २ करके ( वत्सान् ) वत्सों के समान इस लोक में बसे वा स्तुतिकारी नम्रजनों को ( परा ददः ) युक्त करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुहन्मा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृद् बृहती। ५, ७ विराड् बृहती। ३ निचृद् बृहती। ८, १० आर्ची स्वराड् बृहती। १२ आर्ची बृहती। ९, ११ बृहती। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ४ पंक्ति:। १३ उष्णिक्। १५ निचृदुष्णिक्। १४ भुरिगनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
भूरिभिः, बर्हिष्मद्भिः, ऋिषभिः
पदार्थ
[१] हे (समह) = समानरूप से सबसे पूज्य प्रभो ! आप (भूरिभिः) = [भृ धारणपोषणयोः] धारण व पोषण करनेवाले, (बर्हिष्मद्भिः) = वासनाशून्य हृदयोंवाले (ऋषिभिः) = तत्त्वद्रष्टा पुरुषों से (स्तविष्यसे) = स्तुति किये जाते हैं। [२] (यत्) = क्योंकि हे (शर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! आप (इत्थम्) = इस प्रकार - स्तवन किये जाने पर (वत्सान्) = अपने इन प्रिय उपासकों को (एकम् एकम् इत्) = निश्चय से एक-एक वस्तु (पराददः) = देते हैं। प्रभु का उपासक प्रभु से सब आवश्यक धनों को प्राप्त करता है। योगक्षेम को चलानेवाले प्रभु ही तो हैं।
भावार्थ
भावार्थ-उपासक वह है जो शरीर का ठीक पालन व पोषण करे, हृदय को वासना - शून्य बनाए, मस्तिष्क में ऋषितुल्य ज्ञानवाला हो । प्रभु इन वत्सों को सब आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त कराते हैं।
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