ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 70/ मन्त्र 2
इन्द्रं॒ तं शु॑म्भ पुरुहन्म॒न्नव॑से॒ यस्य॑ द्वि॒ता वि॑ध॒र्तरि॑ । हस्ता॑य॒ वज्र॒: प्रति॑ धायि दर्श॒तो म॒हो दि॒वे न सूर्य॑: ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । तम् । शु॒म्भ॒ । पु॒रु॒ऽह॒न्म॒न् । अव॑से । यस्य॑ । द्वि॒ता । वि॒ऽध॒र्तरि॑ । हस्ता॑य । वज्रः॑ । प्रति॑ । धा॒यि॒ । द॒र्श॒तः । म॒हः । दि॒वे । न । सूर्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रं तं शुम्भ पुरुहन्मन्नवसे यस्य द्विता विधर्तरि । हस्ताय वज्र: प्रति धायि दर्शतो महो दिवे न सूर्य: ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम् । तम् । शुम्भ । पुरुऽहन्मन् । अवसे । यस्य । द्विता । विऽधर्तरि । हस्ताय । वज्रः । प्रति । धायि । दर्शतः । महः । दिवे । न । सूर्यः ॥ ८.७०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 70; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
विषय - प्रभु परमेश्वर की गुण-स्तुति।
भावार्थ -
हे ( पुरु-हन्मन् ) बहुत से शत्रुओं को नाश करने में समर्थ ! तू ( अवसे ) रक्षा करने के लिये ( तं इन्द्रं ) उस ऐश्वर्यपद को ( शुम्भ ) सुशोभित कर ( यस्य ) जिसके ( वि-धर्तरि ) विशेष रूप से धारण करने · वाले के अधीन ( द्विता ) दो स्वरूप हैं, एक भीम जो ( हस्ताय ) शत्रुओं के हनन करने के लिये ( वज्रः ) बलवीर्य को ( प्रतिधायि ) धारण करता है और दूसरा कान्त जो ( महः दर्शतः ) बड़ा दर्शनीय और ( दिवे सूर्यः न ) आकाश में सूर्यवत् जो पृथिवी पर तेज प्रदान करने के लिये सूर्य के समान तेजस्वी है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पुरुहन्मा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृद् बृहती। ५, ७ विराड् बृहती। ३ निचृद् बृहती। ८, १० आर्ची स्वराड् बृहती। १२ आर्ची बृहती। ९, ११ बृहती। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ४ पंक्ति:। १३ उष्णिक्। १५ निचृदुष्णिक्। १४ भुरिगनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
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