ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 77/ मन्त्र 1
ज॒ज्ञा॒नो नु श॒तक्र॑तु॒र्वि पृ॑च्छ॒दिति॑ मा॒तर॑म् । क उ॒ग्राः के ह॑ शृण्विरे ॥
स्वर सहित पद पाठज॒ज्ञा॒नः । नु । श॒तऽक्र॑तुः । वि । पृ॒च्छ॒त् । इति॑ । मा॒तर॑म् । के । उ॒ग्राः । के । ह॒ । शृ॒ण्वि॒रे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जज्ञानो नु शतक्रतुर्वि पृच्छदिति मातरम् । क उग्राः के ह शृण्विरे ॥
स्वर रहित पद पाठजज्ञानः । नु । शतऽक्रतुः । वि । पृच्छत् । इति । मातरम् । के । उग्राः । के । ह । शृण्विरे ॥ ८.७७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 77; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
विषय - राजा के प्रजा के प्रति कर्त्तव्य।
भावार्थ -
( जज्ञानः ) उत्पन्न या प्रकट होता हुआ ( शतक्रतुः ) अनेक प्रज्ञावान् पुरुष ( मातरं वि पृच्छत् ) माता से बालक के समान विज्ञानवान्, सत्यज्ञानी पुरुष वा मातृतुल्य प्रजा से ही ( इति ) इस प्रकार से (वि पृच्छात्) विशेष रूप से प्रश्न किया करे कि ( के उग्राः ) राष्ट्र में कौन ऐसे बलवान् पुरुष हैं जिनसे लोग भय खाते हैं, और ( के ह शृणिवरे ) कौन ऐसे बलवान् लोग अभी तक सुने जाते हैं। अर्थात् देश में पहले भी ऐसे कौन २ बलवान् भयकारी, त्रासदायी हो चुके हैं। राजा का कर्त्तव्य है कि सबसे पहले यह प्रजा के त्रासकारी लोगों का पता लगा कर उनका नाश करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - * कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ७, ८ गायत्री ॥ २, ५, ६, ९ निचृद् गायत्री। १० निचृद् बृहती । ११ निचृत् पंक्ति:। एकादशर्चं सूक्तम् ॥ *पुरुसुतिति प्रामादिकः।
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