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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 77 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 77/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कुरुसुतिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    समित्तान्वृ॑त्र॒हाखि॑द॒त्खे अ॒राँ इ॑व॒ खेद॑या । प्रवृ॑द्धो दस्यु॒हाभ॑वत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । इत् । तान् । वृ॒त्र॒ऽहा । अ॒खि॒द॒त् । खे । अ॒रान्ऽइ॑व । खेद॑या । प्रऽवृ॑द्धः । द॒स्यु॒हा । अ॒भ॒व॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समित्तान्वृत्रहाखिदत्खे अराँ इव खेदया । प्रवृद्धो दस्युहाभवत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । इत् । तान् । वृत्रऽहा । अखिदत् । खे । अरान्ऽइव । खेदया । प्रऽवृद्धः । दस्युहा । अभवत् ॥ ८.७७.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 77; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    तब वह ( वृत्रहा ) दुष्टों का नाश करने वाला वीर राजा प्रजा की अभ्यर्थना करने पर ( तान् ) उन दुष्ट पुरुषों को ( खे ) चक्र की नाभि में ( अरान् इव ) अरों के समान, ( खेदया ) रज्जु आदिवत् बन्धनकारिणी मर्यादा या ताड़ना से ( खे ) शून्य कारागारादि में ( अखिदत् ) घर कर पीड़ित करे और उनको दण्डित करके दीन बना दे, उनकी त्रासकारिणी उग्रता को दूर कर दे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - * कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ७, ८ गायत्री ॥ २, ५, ६, ९ निचृद् गायत्री। १० निचृद् बृहती । ११ निचृत् पंक्ति:। एकादशर्चं सूक्तम् ॥ *पुरुसुतिति प्रामादिकः।

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