ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 77/ मन्त्र 4
एक॑या प्रति॒धापि॑बत्सा॒कं सरां॑सि त्रिं॒शत॑म् । इन्द्र॒: सोम॑स्य काणु॒का ॥
स्वर सहित पद पाठएक॑या । प्र॒ति॒ऽधा । अ॒पि॒ब॒त् । सा॒कम् । सरां॑सि । त्रिं॒शत॑म् । इन्द्रः॑ । सोम॑स्य । का॒णु॒का ॥
स्वर रहित मन्त्र
एकया प्रतिधापिबत्साकं सरांसि त्रिंशतम् । इन्द्र: सोमस्य काणुका ॥
स्वर रहित पद पाठएकया । प्रतिऽधा । अपिबत् । साकम् । सरांसि । त्रिंशतम् । इन्द्रः । सोमस्य । काणुका ॥ ८.७७.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 77; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
विषय - चन्द्र सूर्यवत् राजा के व्यवहार का वर्णन।
भावार्थ -
जिस प्रकार ( इन्द्रः ) सूर्य ( एकया ) एक ही ( प्रतिधा) प्रति-धान अर्थात् अमावास्या या प्रतिपदा की विपरीत स्थिति से (सोमस्य ) चन्द्र की ( काणुका ) कमनीय ( त्रिंशतम् सरांसि ) तीसों दिन रातों की किरणों को ( साकम् ) एक साथ ही ( अपिबत् ) पान कर लेता है, अपने भीतर ही ले लेता है, उसी प्रकार ( काणुका इन्द्रः ) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष भी ( एकया प्रतिधा ) एक ही प्रतिधान, अर्थात् विग्रहपूर्वक आक्रमण से ( सोमस्य ) प्रति पक्ष के ऐश्वर्य युक्त राष्ट्र के ( त्रिंशतम् ) तीसों ( सरांसि ) धनों को ( साकं अपिबत् ) एक साथ ही पान कर जाता है, अथवा ( सोमस्य पूर्णानि सरांसि ) ऐश्वर्य से पूर्ण पक्ष के तीसों रात दिन ( साकम् अपिबत् ) एक साथ उपभोग या पालन करे और ( एकया प्रतिधा ) एक समान सावधानता से प्रत्येक व्यक्ति का पालन पोषण करते हुए तीसों रात दिन एक साथ, लगातार पालन करता रहे, किसी दिन असावधान न हो।
टिप्पणी -
‘काणुका’—काणुका कान्तकानीति वा । क्रान्तकानि इति वा, कणेघातः इति वा, कणेहतः कान्तिहतः । [ इच्छाकृतकानि इति वा । इन्द्रः सोमस्य कान्त इति वा प्रतिघात इति यावत् ] तत्रैतद् याज्ञिका वेदयन्ते त्रिंशदुक्थपात्राणि माध्यंदिने सवने एकदैवतानि तान्येतस्मिन् काले एकेन प्रतिधानेन पिबन्ति ) तान्यत्र संरांस्युच्यन्ते। त्रिंशदपरपक्षस्याहोरात्रास्त्रिंशत् पूर्वपक्षस्य चेति नैरुक्ताः । तथा एताश्चान्द्रमस्या आगामिन्य आपो भवन्ति रश्मयःस्ताः अपर पक्षे पिबन्ति यमक्षितिमक्षितयः पिबन्ति । तं पूर्वपक्ष आप्याययन्ति तथापि निगमा भवन्ति यथा देवा अंशुमाध्यायन्ति इति । निरु० अ० ५। ११॥
काणुका का अर्थ है कान्तियुक्त, दूरगत, वा कृतक, कृत्रिम, अथवा काणुका सूर्य का विशेषण है वह सोम ( चन्द्र ) का ‘कान्त’ प्रिय, या कान्तिप्रद है। अथवा कणेघात, कन्नी काटने अर्थ में अर्थात् कान्ति, वा इच्छा प्रतिघात अर्थ में ‘काणुका’ शब्द है। इस सम्बन्ध में याज्ञिक बतलाते हैं कि माध्यन्दिन सवन में तीस उक्थ पत्र एक ही देवता के निमित्त होते हैं उनको इस अवसर पर एक ही बार में पीते हैं। वे पात्र ‘सरस’ कहाते हैं। नैरुक्तों का मत है कि कृष्णपक्ष के तीस और शुक्ल पक्ष के तीस दिन रात्रि होते हैं चन्द्रमा की आने वाली रश्मियों का नाम ‘आपः’ है। क्योंकि वे दूसरे से प्राप्त होती हैं। उन को कृष्ण पक्ष में सूर्य की किरणें स्वयं अपने में पुनः ग्रहण कर लेती हैं मानों पी जाती हैं। इसी प्रकार पूर्व शुक्लपक्ष में फिर पूर्ण कर देती हैं जिस प्रकार वेद वाक्य है ( यथा देवाः ० इत्यादि )।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - * कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ७, ८ गायत्री ॥ २, ५, ६, ९ निचृद् गायत्री। १० निचृद् बृहती । ११ निचृत् पंक्ति:। एकादशर्चं सूक्तम् ॥ *पुरुसुतिति प्रामादिकः।
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