ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 77/ मन्त्र 5
अ॒भि ग॑न्ध॒र्वम॑तृणदबु॒ध्नेषु॒ रज॒स्स्वा । इन्द्रो॑ ब्र॒ह्मभ्य॒ इद्वृ॒धे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । ग॒न्ध॒र्वम् । अ॒तृ॒ण॒त् । अ॒बु॒ध्नेषु॑ । रजः॑ऽसु । आ । इन्द्रः॑ । ब्र॒ह्मऽभ्यः॑ । इत् । वृ॒धे ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि गन्धर्वमतृणदबुध्नेषु रजस्स्वा । इन्द्रो ब्रह्मभ्य इद्वृधे ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । गन्धर्वम् । अतृणत् । अबुध्नेषु । रजःऽसु । आ । इन्द्रः । ब्रह्मऽभ्यः । इत् । वृधे ॥ ८.७७.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 77; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
विषय - सूर्यवत् राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
( इन्द्रः ) सूर्य वा विद्युत् जिस प्रकार ( अबुध्नेषु ) रोक थाम न करने वाले, बन्धनरहित ( रजःसु ) अन्तरिक्ष के प्रदेशों में स्थित ( गन्धर्वम् अभि अतृणत् ) जल को धारण करने वाले जलधर मेघ को आघात करता है तो वह ( ब्रह्मभ्यः ) अन्नों की ( वृधे इत् ) वृद्धि के लिये ही होता है उसी प्रकार ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान्, शत्रुहनन में समर्थ राजा ( अबुध्नेषु रजःसु ) अप्रबद्ध, अनाश्रित, लोकों वा प्रजा जनो में विद्यमान ( गन्धर्वम् ) भूमि को अपने वश कर लेने वाले प्रबल शत्रु को ( अभि अतृणत् ) आक्रमण कर के नाश करे तो वह ( ब्रह्मभ्यः वृधे इत् ) धनों, अन्नों और विद्वान् पुरुषों की ही वृद्धि के लिये होता है। इत्येकोन त्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - * कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ७, ८ गायत्री ॥ २, ५, ६, ९ निचृद् गायत्री। १० निचृद् बृहती । ११ निचृत् पंक्ति:। एकादशर्चं सूक्तम् ॥ *पुरुसुतिति प्रामादिकः।
इस भाष्य को एडिट करें