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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 77 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 77/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कुरुसुतिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒भि ग॑न्ध॒र्वम॑तृणदबु॒ध्नेषु॒ रज॒स्स्वा । इन्द्रो॑ ब्र॒ह्मभ्य॒ इद्वृ॒धे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । ग॒न्ध॒र्वम् । अ॒तृ॒ण॒त् । अ॒बु॒ध्नेषु॑ । रजः॑ऽसु । आ । इन्द्रः॑ । ब्र॒ह्मऽभ्यः॑ । इत् । वृ॒धे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि गन्धर्वमतृणदबुध्नेषु रजस्स्वा । इन्द्रो ब्रह्मभ्य इद्वृधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । गन्धर्वम् । अतृणत् । अबुध्नेषु । रजःऽसु । आ । इन्द्रः । ब्रह्मऽभ्यः । इत् । वृधे ॥ ८.७७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 77; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    For the advancement of the holy and intelligent people, Indra scatters the selfish forces living purely for physical and material values on stupid and baseless planes of existence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाचे एक मुख्य कार्य आहे की, धर्माच्या प्रचारासाठी त्याच्या विरोधकांना शासन करावे, परंतु त्यापूर्वी धर्म म्हणजे काय? हे आपल्या अनुभव व विज्ञानबलाने निश्चित करावे.॥५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    य इन्द्रो राजा । ब्रह्मभ्यः+इद्वृधे=वेदेभ्य एव वर्धनाय । अबुध्नेषु=पदनिधानयोग्यस्थानरहितेषु । रजःसु=लोकेषु । गन्धर्वम्=उदरम्भरिणं स्वार्थिनम् । अभ्यातृणत्=सर्वतो हिनस्ति प्रक्षिपति । स प्रशंसनीयो भवति ॥५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (इन्द्रः) जो राज (ब्रह्मभ्यः+इद्+वृधे) वेदों, सद्धर्म्मों और धर्म्मग्राही पुरुषों की वृद्धि के लिये ही (अबुध्नेषु) मूलरहित निराधार (रजःसु) लोकों में (गन्धर्वम्) केवल शरीरपोषक स्वार्थपरायण विषयी पुरुषों को (अभि+आ+अतृणत्) फेंक देता है, वह प्रशंसनीय होता है ॥५ ॥

    भावार्थ

    राजा का यह एक मुख्य कार्य्य है कि धर्म्म के प्रचारार्थ तद्विरोधियों का शासन किया करे, परन्तु इसके पूर्व धर्म्म क्या वस्तु है, इसको अपने अनुभव और विज्ञान-बल से निश्चित करे ॥५ ॥

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    विषय

    सूर्यवत् राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) सूर्य वा विद्युत् जिस प्रकार ( अबुध्नेषु ) रोक थाम न करने वाले, बन्धनरहित ( रजःसु ) अन्तरिक्ष के प्रदेशों में स्थित ( गन्धर्वम् अभि अतृणत् ) जल को धारण करने वाले जलधर मेघ को आघात करता है तो वह ( ब्रह्मभ्यः ) अन्नों की ( वृधे इत् ) वृद्धि के लिये ही होता है उसी प्रकार ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान्, शत्रुहनन में समर्थ राजा ( अबुध्नेषु रजःसु ) अप्रबद्ध, अनाश्रित, लोकों वा प्रजा जनो में विद्यमान ( गन्धर्वम् ) भूमि को अपने वश कर लेने वाले प्रबल शत्रु को ( अभि अतृणत् ) आक्रमण कर के नाश करे तो वह ( ब्रह्मभ्यः वृधे इत् ) धनों, अन्नों और विद्वान् पुरुषों की ही वृद्धि के लिये होता है। इत्येकोन त्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    * कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ७, ८ गायत्री ॥ २, ५, ६, ९ निचृद् गायत्री। १० निचृद् बृहती । ११ निचृत् पंक्ति:। एकादशर्चं सूक्तम् ॥ *पुरुसुतिति प्रामादिकः।

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    विषय

    अभि गन्धर्वम्

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (गन्धर्वं अभि) = वेदवाणी के धारण करनेवाले प्रभु की ओर चलता है (अबुध्नेषु) = पदविधान के अयोग्य (रजः सु) = लोकों में, अर्थात् हृदयान्तरिक्ष में (अतृणत्) = यह वासनाओं का विनाश करता है। इसके हृदय में वासनाएँ अपना पैर नहीं जमा पातीं। इन वासनाओं के लिये इसका हृदय 'अबुध्न' बना रहता है। [२] यह इन्द्र वासनाओं का विनाश करके (इत्) = निश्चय से (ब्रह्मभ्यः वृधे) = ज्ञानों के वर्धन के लिये होता है। वासनाविनाश के बिना ज्ञान वृद्धि का सम्भव है ही नहीं।

    भावार्थ

    भावार्थ - एक जितेन्द्रिय पुरुष प्रभु की ओर चलता है और हृदयस्थली से वासनाओं के झाड़ी-झंकाड़ों को उखाड़ फेंकता है। यह अपने जीवन में उत्तमोत्तम ज्ञान की वृद्धि को करता है।

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