ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 77/ मन्त्र 7
श॒तब्र॑ध्न॒ इषु॒स्तव॑ स॒हस्र॑पर्ण॒ एक॒ इत् । यमि॑न्द्र चकृ॒षे युज॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तऽब्र॑ध्नः । इषुः॑ । तव॑ । स॒हस्र॑ऽपर्णः । एकः॑ । इत् । यम् । इ॒न्द्र॒ । च॒कृ॒षे । युज॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
शतब्रध्न इषुस्तव सहस्रपर्ण एक इत् । यमिन्द्र चकृषे युजम् ॥
स्वर रहित पद पाठशतऽब्रध्नः । इषुः । तव । सहस्रऽपर्णः । एकः । इत् । यम् । इन्द्र । चकृषे । युजम् ॥ ८.७७.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 77; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Let your arrow, your armour, your target plan, be hundred pointed and thousand phased but one, united and integrated, which, O ruler Indra, you take up as the sole, active characteristic of your rule.
मराठी (1)
भावार्थ
राजाची सर्व आयुधे तीक्ष्ण व स्थायी असावीत ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजप्रशंसा ।
पदार्थः
हे इन्द्र=राजन् ! त्वं यमिषुम् । युजं=सहायकम् । चकृषे=करोषि । स ईदृशो भवेत् । शतब्रध्नः=शताग्रः । पुनः=सहस्रपर्णः । ईदृगेक इत् । तवेषुर्भवेदित्यर्थः ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजा की प्रशंसा करते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे राजन् महाराज ! आप (यम्) जिस बाण को (युजम्) अपने सहायक और प्रयोग में लावें, वह वैसा होवे । (शतब्रध्नः) जिसमें बहुत से अग्रभाग हों और (सहस्रपर्णः) जिसमें सहस्र पंख लगे हों, ऐसा यदि (एकः+इत्) एक ही (तव+इषुः) तेरा बाण हो, तो भी अच्छा ॥७ ॥
भावार्थ
राजा के सर्व आयुध तीक्ष्ण और स्थायी हों ॥७ ॥
विषय
राजा का सहायक शस्त्रबल।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे शत्रुहन् ! तू ( यम् युजं चकृषे ) जिसको अपना सहायक बनाता है वह ( तव इषुः ) तेरा बाण वा शस्त्रबल वा आज्ञा ( शतब्रध्नः ) सैकड़ों आश्रयों और बन्धन मर्यादाओं वाला और ( सहस्रपर्णः ) सहस्रों बलशाली, पत्रों, रथों वा पालक जनों से सम्पन्न और ( एकः इत् ) एक अद्वितीय, सब से अधिक उत्तम हो। (२) इसी प्रकार उस प्रभु परमेश्वर की ‘इषु’ महान् इच्छा, वा संकल्प सैकड़ों ‘ब्रध्न’ अर्थात् आदित्यों और आकाशों तक फैला हुआ और सहस्त्रों पर्ण अर्थात् पालन शक्तियों, किरणों से युक्त सूर्यवत् सत्यमय तेज से युक्त है और एक अद्वितीय, सर्वोपरि शासन है, जिससे अनेकों ब्रह्माण्ड चल रहे हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
* कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ७, ८ गायत्री॥ २, ५, ६, ९ निचृद् गायत्री। १० निचृद् बृहती। ११ निचृत् पंक्ति:। एकादशर्चं सूक्तम्॥ *पुरुसुतिति प्रामादिकः।
विषय
शतब्रध्न
पदार्थ
हे (इन्द्र) = ऐश्वर्यशालिन् ! आप (यम् युजं चकृषे) = जिसे अपना सहायक बनाते हो, वह (तव इषुः) = आपका बाण (शतब्रध्नः) = सैकड़ों आश्रयोंवाला (सहस्त्रपर्णः) = सहस्रों बलों से सम्पन्न (एकः इत्) = अद्वितीय हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ - जिस पर प्रभु कृपा करें, वह निर्बल भी बली तथा विपन्न भी सम्पन्न हो जाता है ।
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