ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 77/ मन्त्र 2
आदीं॑ शव॒स्य॑ब्रवीदौर्णवा॒भम॑ही॒शुव॑म् । ते पु॑त्र सन्तु नि॒ष्टुर॑: ॥
स्वर सहित पद पाठआत् । ई॒म् । श॒व॒सी । अ॒ब्र॒वी॒त् । औ॒र्ण॒ऽवा॒भम् । अ॒ही॒शुव॑म् । ते । पु॒त्र॒ । स॒न्तु॒ । निः॒ऽतुरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आदीं शवस्यब्रवीदौर्णवाभमहीशुवम् । ते पुत्र सन्तु निष्टुर: ॥
स्वर रहित पद पाठआत् । ईम् । शवसी । अब्रवीत् । और्णऽवाभम् । अहीशुवम् । ते । पुत्र । सन्तु । निःऽतुरः ॥ ८.७७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 77; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Let the mother power that makes him rise to the office of Indra, she having the full power to create, advise and decide say: O son, ruler and protector of the state of humanity, one is the demonic spider-like weaver of sinister devouring plots, the other is the serpentine master of crookedness and sabotage, which two you should counter and eliminate.
मराठी (1)
भावार्थ
राजाने प्रजेतील उपद्रवी लोकांवर सदैव नियंत्रण ठेवावे व त्यांना सुशिक्षित करावे. ॥२॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
आद्+ईम्=तदनन्तरम् । इन्द्रेण जिज्ञासिता । शवसी= बलवती सा सभा । इदमब्रवीत्=ब्रूयात् । हे पुत्र ! और्णवाभम्=उर्णनाभवन्मायाजालविस्तारकम् । तथा अहीशुवम्=सर्पवत् कुटिलगामिनं द्विविद्यौ पुरुषौ जगतः शत्रू विजानीहि । अन्येऽपि जगद्द्वेषिणो बहवः सन्ति । हे पुत्र ! ते=सर्वे । ते=तव । निष्टुरः=शासनीयाः सन्तु ॥२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(आद्+ईम्) तदनन्तर इन्द्र से जिज्ञासिता (शवसी) वह बलवती सभा (अब्रवीत्) इस प्रकार उत्तर करे (पुत्र) हे पुत्र राजन् ! (और्णवाभम्) उर्णनाभ के समान मायाजाल फैलानेवाला और (अहीशुवम्) सर्पवत् कुटिलगामी ये दो प्रकार के मनुष्य जगत् के शत्रु हैं, इनको आप अच्छे प्रकार जानें । अन्य भी जगद्द्वेषी बहुत से हैं, हे पुत्र ! (ते) वे सब तेरे (निष्टुरः) शासनीय (सन्तु) होवें ॥२ ॥
भावार्थ
राजा को उचित है कि प्रजा में उपद्रवकारी जनों को सदा निरीक्षण में रक्खे और उन्हें सुशिक्षित बनावे ॥२ ॥
विषय
राजा के प्रजा के प्रति कर्त्तव्य।
भावार्थ
( आत् ) अनन्तर ( शवसी ) बलवती प्रजा ( ईम् और्णवाभम् ) उस और्णवाभ, तेजस्वी दण्डधर, राजा और ( अमहीशुवम् ) राष्ट्र की बाग-डोर संभालने वाले उस शासक पुरुष के प्रति ( अब्रवीत् ) कहे कि हे (पुत्र) बहुत से प्रजा जनों के त्राण करने वाले राजन् ! (ते) वे अमुक २ नाम वाले बहुत से हैं जो ( निः-तुरः सन्ति ) विनाश कर देने योग्य हैं वा, उनको ( निः-तुरः ) अति तीव्र अश्वों को कोचवान् के समान बन्धन रज्जु और हन्टरों से दण्ड दे, वश करे ।
टिप्पणी
और्णवाभः- उर्णां वहति इति उर्णवाभः। भत्वं छान्दसम्। स्वार्थिको डण्। अथवा उर्णाया वस्त्रं आहननार्थस्तोदो वा और्णं तद्वहति वा। विशेषपरिच्छदभूषितो दण्डधरो वा। अहीशु = अभीशु। हत्वं छान्दसम्। प्रग्रहवान् उच्छृंखलानामिवाश्वानां नियन्ता।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
* कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ४, ७, ८ गायत्री ॥ २, ५, ६, ९ निचृद् गायत्री। १० निचृद् बृहती । ११ निचृत् पंक्ति:। एकादशर्चं सूक्तम् ॥ *पुरुसुतिति प्रामादिकः।
विषय
और्णवाभम् अहीशुवम्
पदार्थ
[१] इस प्रकार प्रश्न के होने पर (आत् ईम्) = अब निश्चय से (शवसी) = शक्तिसम्पन्न गतिशील माता (अब्रवीत्) = कहती है कि (और्णवाभम्) = मकड़ी [ऊर्णनाभि ] की तरह अपने जाल को फैलानेवाले (अहीशुभम्) = [अहि श्वि] सर्प की तरह [ आहन्ति इति] गतिवाले व निरन्तर अपने (विष) = प्रभाव को बढ़ानेवाले [ श्वि गतिवृद्ध्योः] 'काम' को ही तू अपना उग्रतम शत्रु जान। [२] हे (पुत्र) = अपने जीवन को पवित्र व सुरक्षित [पु+त्रा, पुनाति त्रायते] बनानेवाले प्रिय पुत्र ! ये काम आदि शत्रु ही (ते) = तेरे (निष्टुरः सन्तु) = निस्तारणीय हों। इन शत्रुओं को तू सदा समाप्त करनेवाला बन। इनके वशीभूत तूने नहीं होना।
भावार्थ
भावार्थ - माता बालक को इस प्रकार प्रेरणा देती है कि तूने वासनाजाल को विनष्ट करनेवाला बनना है ।
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