ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 104/ मन्त्र 1
ऋषिः - पर्वतनारदौ द्वे शिखण्डिन्यौ वा काश्यप्यावप्सरसौ
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
सखा॑य॒ आ नि षी॑दत पुना॒नाय॒ प्र गा॑यत । शिशुं॒ न य॒ज्ञैः परि॑ भूषत श्रि॒ये ॥
स्वर सहित पद पाठसखा॑यः । आ । नि । सी॒द॒त॒ । पु॒ना॒नाय॑ । प्र । गा॒य॒त॒ । शिशु॑म् । न । य॒ज्ञैः । परि॑ । भू॒ष॒त॒ । श्रि॒ये ॥
स्वर रहित मन्त्र
सखाय आ नि षीदत पुनानाय प्र गायत । शिशुं न यज्ञैः परि भूषत श्रिये ॥
स्वर रहित पद पाठसखायः । आ । नि । सीदत । पुनानाय । प्र । गायत । शिशुम् । न । यज्ञैः । परि । भूषत । श्रिये ॥ ९.१०४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 104; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
विषय - सोम पवमान। सबको मिलकर उपासना करने का उपदेश।
भावार्थ -
हे (सखायः) मित्रो (आ नि सीदत) आओ, चारों ओर घेरा लगा कर समीप बैठ जाओ। (पुनानाय) सब को पवित्र करने वाले प्रभु के लिये (प्र गायत) खूब स्तुति करो। (शिशुं) बालक के तुल्य स्वच्छ-पवित्र, निष्पाप एवं सब के हृदयहारी, सर्वत्र व्यापक एवं प्रिय उपदेशप्रद-प्रभु को (श्रिये) ऐश्वर्य-प्राप्ति के लिये (यज्ञैः परि भूषत) यज्ञों और उपासनाओं से सुशोभित करो, उस की ही स्तुति करो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पर्वत नारदौ द्वे शिखण्डिन्यौ वा काश्यप्यावप्सरसौ ऋषी॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः–१, ३, ४ उष्णिक्। २, ५, ६ निचृदुष्णिक्॥
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