ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 104/ मन्त्र 2
ऋषिः - पर्वतनारदौ द्वे शिखण्डिन्यौ वा काश्यप्यावप्सरसौ
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
समी॑ व॒त्सं न मा॒तृभि॑: सृ॒जता॑ गय॒साध॑नम् । दे॒वा॒व्यं१॒॑ मद॑म॒भि द्विश॑वसम् ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । ई॒म् इति॑ । व॒त्सम् । न । मा॒तृऽभिः॑ । सृ॒जत॑ । ग॒य॒ऽसाध॑नम् । दे॒व॒ऽअ॒व्य॑म् । मद॑म् । अ॒भि । द्विऽश॑वसम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
समी वत्सं न मातृभि: सृजता गयसाधनम् । देवाव्यं१ मदमभि द्विशवसम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । ईम् इति । वत्सम् । न । मातृऽभिः । सृजत । गयऽसाधनम् । देवऽअव्यम् । मदम् । अभि । द्विऽशवसम् ॥ ९.१०४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 104; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
विषय - वाणियों से व्यापक प्रभु की उपासना करो।
भावार्थ -
(मातृभिः वत्सं न) माताओं से (गयसाधनं) घर को चमकाने वाले बच्चे को जिस प्रकार (संसृजन्ति) संसृष्ट कर लेते हैं उसी प्रकार (गय-साधनम्) प्राणों के वशीकार द्वारा साधना करने योग्य (वत्सं) वन्दनीय पति स्तुत्य प्रभु को (मातृभिः) ज्ञानकारिणी वा शब्द-मयी वाणियों से (सं सृजत) संसृष्ट करो, वाणियों का संयोग प्रभु से कराओ, प्रभु को अपनी वाणियों का लक्ष्य करो। उसी (देव-अव्यं) देवों में व्यापक (मदम्) आनन्ददायक (द्विशवसम्) नर नारी, माता-पिता, दोनों प्रकार के बल को धारण करने वाले प्रभु की (प्र गायत) स्तुति करो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पर्वत नारदौ द्वे शिखण्डिन्यौ वा काश्यप्यावप्सरसौ ऋषी॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः–१, ३, ४ उष्णिक्। २, ५, ६ निचृदुष्णिक्॥
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