ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 104/ मन्त्र 3
ऋषिः - पर्वतनारदौ द्वे शिखण्डिन्यौ वा काश्यप्यावप्सरसौ
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
पु॒नाता॑ दक्ष॒साध॑नं॒ यथा॒ शर्धा॑य वी॒तये॑ । यथा॑ मि॒त्राय॒ वरु॑णाय॒ शंत॑मः ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒नात॑ । द॒क्ष॒ऽसाध॑नम् । यथा॑ । शर्धा॑य । वी॒तये॑ । यथा॑ । मि॒त्राय॑ । वरु॑णाय । शम्ऽत॑मः ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनाता दक्षसाधनं यथा शर्धाय वीतये । यथा मित्राय वरुणाय शंतमः ॥
स्वर रहित पद पाठपुनात । दक्षऽसाधनम् । यथा । शर्धाय । वीतये । यथा । मित्राय । वरुणाय । शम्ऽतमः ॥ ९.१०४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 104; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
विषय - उपासना और ज्ञान का फल बल, ज्ञान, तेज, और शान्ति सुख प्राप्ति है।
भावार्थ -
(यथा शर्धाय वीतये) उचित बल और उचित ज्ञान, तेजः कांति प्राप्त करने के लिये (दक्ष-साधनं) बल-उत्साह के देने, वश करने और उत्पन्न करने वाले को (पुनात) छानने से बलप्रद ओषधि के तुल्य अन्तःकरण द्वारा विमर्श-विचार करो, उसके निर्दोष रूप का विवेक करो। (यथा) क्योंकि वह (मित्राय) स्नेह करने वाले और (वरुणाय) वरण करने वाले, भक्त नरनारी जनों को (शंतमः) अति अधिक शान्ति सुख देने वाला है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पर्वत नारदौ द्वे शिखण्डिन्यौ वा काश्यप्यावप्सरसौ ऋषी॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः–१, ३, ४ उष्णिक्। २, ५, ६ निचृदुष्णिक्॥
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