ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 16/ मन्त्र 7
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
दि॒वो न सानु॑ पि॒प्युषी॒ धारा॑ सु॒तस्य॑ वे॒धस॑: । वृथा॑ प॒वित्रे॑ अर्षति ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वः । न । सानु॑ । पि॒प्युषी॑ । धारा॑ । सु॒तस्य॑ । वे॒धसः॑ । वृथा॑ । प॒वित्रे॑ अ॒र्ष॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवो न सानु पिप्युषी धारा सुतस्य वेधस: । वृथा पवित्रे अर्षति ॥
स्वर रहित पद पाठदिवः । न । सानु । पिप्युषी । धारा । सुतस्य । वेधसः । वृथा । पवित्रे अर्षति ॥ ९.१६.७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 16; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 7
विषय - अधीन पर अनुशासन।
भावार्थ -
(दिवः धारा सानु न) आकाश की जलधारा जिस प्रकार पर्वत के शिखर पर पड़ती है, उसी प्रकार (दिवः) तेजस्वी, (वेधसः) शासन विधान करने वाले (पवित्रे सुतस्य) राष्ट्र-पावन-कारक पद पर अभिषिक्त हुए पुरुष की (धारा) वाणी (सानु) आज्ञाकारी और वेतन-भोगी समुदाय पर (वृथा) अनायास ही (अर्षति) जाती है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः— १ विराड् गायत्री। २, ८ निचृद् गायत्री। ३–७ गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
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