ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
ए॒ष इन्द्रा॑य वा॒यवे॑ स्व॒र्जित्परि॑ षिच्यते । प॒वित्रे॑ दक्ष॒साध॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । इन्द्रा॑य । वा॒यवे॑ । स्वः॒ऽजित् । परि॑ । सि॒च्य॒ते॒ । प॒वित्रे॑ । द॒क्ष॒ऽसाध॑नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष इन्द्राय वायवे स्वर्जित्परि षिच्यते । पवित्रे दक्षसाधनः ॥
स्वर रहित पद पाठएषः । इन्द्राय । वायवे । स्वःऽजित् । परि । सिच्यते । पवित्रे । दक्षऽसाधनः ॥ ९.२७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 27; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
विषय - अभिषेक योग्य पुरुष के गुण।
भावार्थ -
(एषः) यह (दक्ष-साधनः) बल से शत्रुओं को वश करने वाला, (स्वर्जित्) सब का विजेता पुरुष, (इन्द्राय) शत्रुओं के नाश करने, ऐश्वर्य के बढ़ाने और (वायवे) वायुवत् प्रबल हो कर प्रजा को जीवन देने और शत्रुओं को मूल से उखाड़ डालने वाले पद के लिये (पवित्रे) देश को दुष्टों से रहित, स्वच्छ करने के विशेष पद पर (परि सिच्यते) सर्वोपरि अभिषेक किया जाता है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नृमेध ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:– १, ६ निचृद् गायत्री। ३–५ गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें