ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 3/ मन्त्र 10
ए॒ष उ॒ स्य पु॑रुव्र॒तो ज॑ज्ञा॒नो ज॒नय॒न्निष॑: । धार॑या पवते सु॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । ऊँ॒ इति॑ । स्यः । पु॒रु॒ऽव्र॒तः । ज॒ज्ञा॒नः । ज॒नय॑न् । इषः॑ । धार॑या । प॒व॒ते॒ । सु॒तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष उ स्य पुरुव्रतो जज्ञानो जनयन्निष: । धारया पवते सुतः ॥
स्वर रहित पद पाठएषः । ऊँ इति । स्यः । पुरुऽव्रतः । जज्ञानः । जनयन् । इषः । धारया । पवते । सुतः ॥ ९.३.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
विषय - शासन का पवित्र कार्य। दण्डधारा और खड्ग धारा दोनों का समान सदुपयोग । पक्षान्तर में राजहंसवत् पक्षी के तुल्य आत्मगति का वर्णन । इस पक्ष में सुपर्ण-आत्मा, द्रोण जलकुण्ड, उसकी विद्या से शुद्धि, उसका संन्यास-मार्ग। और आत्मा का लिङ्गशरीर में विचरण और मुक्तिमार्ग का अनुधावन ।
भावार्थ -
(एषः उ स्यः) यह वह है जो (पुरु-वतः) बहुत से व्रतों, कर्मों का पालन करके स्वयं (जज्ञानः) नया जन्म लेता हुआ, (इषः) नाना उत्तम कामनाओं सेनाओं और उपभोग्य अन्नादि को भी (जनयन्) पैदा करता हुआ (सुतः) अभिषिक्त होकर (धारया पवते) वाणी से सबको पवित्र करता, (धारया पवते) अभिषेक जल धारा से पवित्र किया जाय और (धारया पवते) धर्म की दण्ड-धाराओं तथा खड्ग की धाराओं से सत्यासत्य और मित्र शत्रु का विवेक करता है। इत्येकविंशो वर्गः ॥
इस ही सूक्त में श्लेष-वृत्ति से परिव्राजक तथा उत्पादक परमेश्वर और जन्म लेने वाले जीव का भी बड़ा रोचक वर्णन है। जैसे—(१) ‘पर्णवी’ मुमुक्षु, राजहंस और पक्षी आत्मा। ‘द्रोण’ जलकुण्ड, नाना शरीर। (२) ‘विपा’ वाणी। ‘ह्वरांसि’ मानस कौटिल्य और जीव के तिर्यग् मार्ग। परिव्राजक हंस आत्मा नित्य। (३) ‘हरिः’ आत्मा शोधन किया जाता है विद्या और तप से। (४) परिव्राट्, पवित्र सा करता हुआ ज्ञान वितरण करता है। (५) वह उत्तम उपदेश करता है, (६) जलों में संन्यास-काल में मज्जन करता है। आत्मा (आपः) लिङ्ग शरीरों में (७, ८) रजः, राजस भावों को त्याग करके विचरता है, मुक्तिमार्ग, परमेश्वर में जाता है है, आत्मा ‘धारा’, वेद वाणी से (१०) वाणी से सबको विचरता है। (९) पवित्र पवित्र करता पवित्र होता है। इति दिक्। इसी प्रकार सर्वत्र योजनाएं जाननी चाहियें, विस्तार भय से नहीं लिखते हैं।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुनःशेप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, २ विराड् गायत्री। ३, ५, ७,१० गायत्री। ४, ६, ८, ९ निचृद् गायत्री। दशर्चं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें