ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 45/ मन्त्र 4
अत्यू॑ प॒वित्र॑मक्रमीद्वा॒जी धुरं॒ न याम॑नि । इन्दु॑र्दे॒वेषु॑ पत्यते ॥
स्वर सहित पद पाठअति॑ । ऊँ॒ इति॑ । प॒वित्र॑म् । अ॒क्र॒मी॒त् । वा॒जी । धुर॑म् । न । याम॑नि । इन्दुः॑ । दे॒वेषु॑ । प॒त्य॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्यू पवित्रमक्रमीद्वाजी धुरं न यामनि । इन्दुर्देवेषु पत्यते ॥
स्वर रहित पद पाठअति । ऊँ इति । पवित्रम् । अक्रमीत् । वाजी । धुरम् । न । यामनि । इन्दुः । देवेषु । पत्यते ॥ ९.४५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 45; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
विषय - परमेश्वर से प्रार्थना।
भावार्थ -
(इन्दुः) वह ऐश्वर्यवान् (देवेषु) इन्द्रियों में आत्मा के समान समस्त विद्वानों में स्वामीवत् रहता है। वह (वाजी) बलवान्, (यामनि) मार्ग चलने में (धुरम्) धुरा में अश्व के समान (पवित्रम्) पवित्र परमात्मा की ओर (अति अक्रमीत्) सब संकटों को लांघ कर पहुंच जाता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अयाम्य ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:—–१, ३–५ गायत्री। २ विराड् गायत्री। ६ निचृद् गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥
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