ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 47/ मन्त्र 4
स्व॒यं क॒विर्वि॑ध॒र्तरि॒ विप्रा॑य॒ रत्न॑मिच्छति । यदी॑ मर्मृ॒ज्यते॒ धिय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒यम् । क॒विः । वि॒ऽध॒र्तरि॑ । विप्रा॑य । रत्न॑म् । इ॒च्छ॒ति॒ । यदि॑ । म॒र्मृ॒ज्यते॑ । धियः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वयं कविर्विधर्तरि विप्राय रत्नमिच्छति । यदी मर्मृज्यते धिय: ॥
स्वर रहित पद पाठस्वयम् । कविः । विऽधर्तरि । विप्राय । रत्नम् । इच्छति । यदि । मर्मृज्यते । धियः ॥ ९.४७.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 47; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
विषय - सर्वपोषक राजा शासक, सेवकों को भृति, वेतन आदि का देने वाला हो।
भावार्थ -
(यदी) जब वह (धियः) उत्तम बुद्धियों और कर्मों द्वारा (मर्मृज्यते) निरन्तर शुद्ध, अलंकृत, परिष्कृत स्वच्छ हो जाता है, तब वह (स्वयं) अपने आप (कविः) क्रान्तदर्शी, विद्वान्, बुद्धिमान् होकर (वि-धर्त्तरि) विशेष धारण करने वाले पद पर विराजकर (विप्राय) विद्वान् गुरु जन के लिये (रत्नम् इच्छति) उत्तम धन देना चाहता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कविर्भार्गव ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:– १, ३, ४ गायत्री। २ निचृद् गायत्री। ५ विराड् गायत्री॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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