ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 69/ मन्त्र 2
उपो॑ म॒तिः पृ॒च्यते॑ सि॒च्यते॒ मधु॑ म॒न्द्राज॑नी चोदते अ॒न्तरा॒सनि॑ । पव॑मानः संत॒निः प्र॑घ्न॒तामि॑व॒ मधु॑मान्द्र॒प्सः परि॒ वार॑मर्षति ॥
स्वर सहित पद पाठउपो॒ इति॑ । म॒तिः पृ॒च्यते॑ । सि॒अयते॑ । मधु॑ । म॒न्द्र॒ऽअज॑नी । चो॒द॒ते॒ । अ॒न्तः । आ॒सनि॑ । पव॑मानः । स॒म्ऽत॒निः । प्र॑घ्न॒ताम्ऽइ॑व । मधु॑ऽमान् । द्र॒प्सः । परि॑ । वार॑म् । अ॒र्ष॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उपो मतिः पृच्यते सिच्यते मधु मन्द्राजनी चोदते अन्तरासनि । पवमानः संतनिः प्रघ्नतामिव मधुमान्द्रप्सः परि वारमर्षति ॥
स्वर रहित पद पाठउपो इति । मतिः पृच्यते । सिअयते । मधु । मन्द्रऽअजनी । चोदते । अन्तः । आसनि । पवमानः । सम्ऽतनिः । प्रघ्नताम्ऽइव । मधुऽमान् । द्रप्सः । परि । वारम् । अर्षति ॥ ९.६९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 69; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
विषय - परमेश्वर की उपासना।
भावार्थ -
(मतिः उपो पृच्यते) उस प्रभु के प्रति प्रथम बुद्धि या मति को ध्यान द्वारा लगाया जाता है। (मधु) आदरार्थ अतिथि के प्रति जल के तुल्य अति हर्षकर वचन का (सिच्यते) प्रयोग किया जाय। उस समय (आसनि अन्तः) मुख के बीच में (मन्द्राजनी) अति हर्ष उत्पन्न करने वाली वाणी (चोदते) शब्दों का उच्चारण करती है। जिस प्रकार (प्र घ्ननताम् इव) उत्तम प्रहार करने वालों में (संतनिः द्रप्सः) उत्तम कार्यकुशल वेगवान् पुरुष वा बाण (वारम् परि अर्षति) वारण करने योग्य शत्रु तक पहुंचता है उसी प्रकार (प्रघ्नताम्) प्रकृष्ट, उत्तम मार्ग से और उत्तम उद्देश्य की ओर जाने वाले पुरुषों में से भी (पवमानः) अपने आत्मा को पवित्र करने वाला (संतनिः) अच्छी प्रकार कर्म करने हारा पुरुष (मधुमान्) हर्षयुक्त, बलवान्, ज्ञानवान् (द्रप्सः) द्रुत गति होकर (वारम्) वरण करने योग्य प्रभु की ओर (परि अर्षति) चला जाता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - हिरण्यस्तूप ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, ५ पादनिचृज्जगती। २—४, ६ जगती। ७, ८ निचृज्जगती। ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
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