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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 69/ मन्त्र 2
    ऋषिः - हिरण्यस्तूपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    उपो॑ म॒तिः पृ॒च्यते॑ सि॒च्यते॒ मधु॑ म॒न्द्राज॑नी चोदते अ॒न्तरा॒सनि॑ । पव॑मानः संत॒निः प्र॑घ्न॒तामि॑व॒ मधु॑मान्द्र॒प्सः परि॒ वार॑मर्षति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उपो॒ इति॑ । म॒तिः पृ॒च्यते॑ । सि॒अयते॑ । मधु॑ । म॒न्द्र॒ऽअज॑नी । चो॒द॒ते॒ । अ॒न्तः । आ॒सनि॑ । पव॑मानः । स॒म्ऽत॒निः । प्र॑घ्न॒ताम्ऽइ॑व । मधु॑ऽमान् । द्र॒प्सः । परि॑ । वार॑म् । अ॒र्ष॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपो मतिः पृच्यते सिच्यते मधु मन्द्राजनी चोदते अन्तरासनि । पवमानः संतनिः प्रघ्नतामिव मधुमान्द्रप्सः परि वारमर्षति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उपो इति । मतिः पृच्यते । सिअयते । मधु । मन्द्रऽअजनी । चोदते । अन्तः । आसनि । पवमानः । सम्ऽतनिः । प्रघ्नताम्ऽइव । मधुऽमान् । द्रप्सः । परि । वारम् । अर्षति ॥ ९.६९.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 69; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पवमानः) सर्वपावकः परमात्मा (प्रघ्नताम्) शूराणां (सन्तनिरिव) शरा इव रुद्ररूपोऽस्ति। अथ च सज्जनेभ्यः (द्रप्सः) गतिशीलः परमेश्वरः (मधुमान्) मधु इव मधुरोऽस्ति शान्तिप्रद इति यावत्। (वारम्) यो हि परमात्मनो भक्तजनोऽस्ति तस्मै (परि अर्षति) सर्वथा प्राप्नोति। अथ च (अन्तः आसनि) भक्तजनामन्तःकरणेषु (मन्द्राजनि) आह्लादकारिणी (मतिः) बुद्धिः (चोदते) उत्पद्यते येन (मधु सिच्यते) आनन्दवृष्टिः क्रियते ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पवमानः) सबको पवित्र करनेवाला परमात्मा (प्रघ्नतां) शूरवीरों के (सन्तानः) शरों के (इव) समान रूद्ररूप है और साधु पुरुषों के लिए (द्रप्सः) गतिशील परमात्मा (मधुमान्) मधु के समान मीठा है। अर्थात् शान्तिप्रद है। (वारं) जो उसका कृपापात्र भक्तजन है, उसको (परि अर्षति) सब प्रकार से प्राप्त होता है और (अन्तः आसनि) भक्त पुरुषों के अन्तःकरण में (मन्द्राजनि) आह्लाद उत्पन्न करनेवाली (मतिः) बुद्धि (चोदते) उत्पन्न होती है। जिससे (सिच्यते) आनन्द की वृष्टि की जाती है।

    भावार्थ

    जो पुरुष शान्तिभाव से परमात्मा के नियमानुकुल चलते हैं, परमात्मा उन्हें शान्तिरूप से उनके कर्मानुकूल फल देता है और जो परमात्मा के नियमों का उल्लङ्घन करते हैं, उनके लिए परमात्मा दण्ड देता है। इसी अभिप्राय से यहाँ शूर वीरों के बाणों के समान परमात्मा को कथन किया गया है। जैसा कि “महद्भयं वज्रमुद्यतम्” उठे हुए वज्र की तरह परमात्मा भयप्रद है ॥२॥

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    विषय

    मति - मायुर्य- मधुर वाणी

    पदार्थ

    [१] सोमरक्षण से (मतिः) = बुद्धि (उ) = निश्चय से (उपपृच्यते) = समीपता से हमारे साथ सम्पृक्त होती है । सोमरक्षण बुद्धि का जनक होता है। इससे (मधु सिच्यते) = हमारे जीवन में माधुर्य का सेवन होता है। (आसति अन्तः) = मुख में (मन्द्राजनी) = आनन्द को उत्पन्न करनेवाली वाणी (चोदते) = प्रेरित होती है । [२] (पवमानः) = यह पवित्र करनेवाला सोम (सन्तनिः) = शरीर में सम्यक् विस्तारवाला होता हुआ (मधुमान्) = माधुर्यवाला होता है, द्रप्सः - [द्रुत गमनशीलः] दीप्तगतिवाला होता है, शरीर में स्फूर्ति को देता है । (वारम्) = वासनाओं से अपने को बचानेवाले को यह (परि अर्षति) = प्राप्त होता है। इस प्रकार प्राप्त होता है, (इव) = जैसे कि (प्रघ्नताम्) = शिकारियों का (संतनिः) = सम्यक् विसृष्ट [ छोड़ा हुआ] तीर लक्ष्य को प्राप्त होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ-सोमरक्षण से बुद्धि व माधुर्य की प्राप्ति होती है तथा मधुरवाणी ही उच्चरित होती है । यह हमें पवित्र करता है, द्रुतगतिवाला [आलस्यशून्य] बनाता है।

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    विषय

    परमेश्वर की उपासना।

    भावार्थ

    (मतिः उपो पृच्यते) उस प्रभु के प्रति प्रथम बुद्धि या मति को ध्यान द्वारा लगाया जाता है। (मधु) आदरार्थ अतिथि के प्रति जल के तुल्य अति हर्षकर वचन का (सिच्यते) प्रयोग किया जाय। उस समय (आसनि अन्तः) मुख के बीच में (मन्द्राजनी) अति हर्ष उत्पन्न करने वाली वाणी (चोदते) शब्दों का उच्चारण करती है। जिस प्रकार (प्र घ्ननताम् इव) उत्तम प्रहार करने वालों में (संतनिः द्रप्सः) उत्तम कार्यकुशल वेगवान् पुरुष वा बाण (वारम् परि अर्षति) वारण करने योग्य शत्रु तक पहुंचता है उसी प्रकार (प्रघ्नताम्) प्रकृष्ट, उत्तम मार्ग से और उत्तम उद्देश्य की ओर जाने वाले पुरुषों में से भी (पवमानः) अपने आत्मा को पवित्र करने वाला (संतनिः) अच्छी प्रकार कर्म करने हारा पुरुष (मधुमान्) हर्षयुक्त, बलवान्, ज्ञानवान् (द्रप्सः) द्रुत गति होकर (वारम्) वरण करने योग्य प्रभु की ओर (परि अर्षति) चला जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, ५ पादनिचृज्जगती। २—४, ६ जगती। ७, ८ निचृज्जगती। ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When the mind is joined in concentration with divinity, honey is released and pours forth, divine ecstasy stirs in the heart within, and the continuous stream of soma, overflowing with joy like the uninterrupted ecstasy of the yogis of perfect renunciation, showers upon the blessed soul.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पुरुष शांत भावाने परमात्म्याच्या नियमानुसार वागतात. परमेश्वर त्यांना शांतिरूपाने त्यांच्या कर्मानुसार फळ देतो व जे परमात्म्याच्या नियमांचे उल्लंघन करतात त्यांना परमात्मा दंड देतो. याच अभिप्रायाने येथे शूरवीराच्या बाणांप्रमाणे परमात्म्याचे वर्णन केलेले आहे. जसे ‘महभ्दयं वज्रमुद्यतम्’ वज्राप्रमाणे परमात्मा भयप्रद आहे.

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