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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 69/ मन्त्र 3
    ऋषिः - हिरण्यस्तूपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    अव्ये॑ वधू॒युः प॑वते॒ परि॑ त्व॒चि श्र॑थ्नी॒ते न॒प्तीरदि॑तेॠ॒तं य॒ते । हरि॑रक्रान्यज॒तः सं॑य॒तो मदो॑ नृ॒म्णा शिशा॑नो महि॒षो न शो॑भते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव्ये॑ । व॒धू॒ऽयुः । प॒व॒ते॒ । परि॑ । त्व॒चि । श्र॒थ्नी॒ते । न॒प्तीः । अदि॑तेः । ऋ॒तम् । य॒ते । हरिः॑ । अ॒क्रा॒न् । य॒ज॒तः । स॒म्ऽय॒तः । मदः॑ । नृ॒म्ना । शिशा॑नः । म॒हि॒षः । न । शो॒भ॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव्ये वधूयुः पवते परि त्वचि श्रथ्नीते नप्तीरदितेॠतं यते । हरिरक्रान्यजतः संयतो मदो नृम्णा शिशानो महिषो न शोभते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव्ये । वधूऽयुः । पवते । परि । त्वचि । श्रथ्नीते । नप्तीः । अदितेः । ऋतम् । यते । हरिः । अक्रान् । यजतः । सम्ऽयतः । मदः । नृम्ना । शिशानः । महिषः । न । शोभते ॥ ९.६९.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 69; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वधूयुः) प्रकृतिस्वामी (हरिः) परमात्मा (अक्रान्) दुष्टानतिक्रामति। (यजतः संयतः) संयमिने यज्ञकर्त्रे (मदः)   आनन्ददायकोऽस्ति। (नृम्णा) बलस्वरूपस्तथा (शिशानः) सर्वगतोऽस्ति। तथा (महिषो न) अत्यन्ततेजस्वीव विराजितोऽस्ति। स परमात्मा (अदितेः) पृथिव्यादितत्त्वस्य (ऋतं यते) तत्त्वज्ञस्य (अव्ये) रक्षकोऽस्ति (त्वचि) तस्यान्तःकरणं (परि पवते) परितो विराजते। अथ च (नप्तीः) तेषां सन्ततीः (श्रथ्नीते) सफलयति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वधूयुः) प्रकृति का स्वामी (हरिः) परमात्मा (अक्रान्) दुष्टों को अतिक्रमण करता है। (यजतः) याग करनेवाला जो (संयतः) संयमी पुरुष है, (मदः) उसको आह्लाद उत्पन्न करनेवाला है। (नृम्णा) बलस्वरूप है तथा (शिशानः) सर्वगत है (महिषः) और अत्यन्त तेजस्वी के (न) समान विराजमान है। वह परमात्मा (अदितेः) पृथिव्यादि तत्त्वों के (ऋतं यते) तत्त्वों को जाननेवाले पुरुष के लिए (अव्यः) जो रक्षा करनेवाला है, (त्वचि) उसके अन्तःकरण में (परि पवते) सब ओर से विराजमान होता है। तथा (नप्तीः) उनकी संततियों को (श्रथ्नीते) सफल करता है ॥३॥

    भावार्थ

    जो पुरुष संयमी बनकर निष्काम यज्ञ करते हैं, उन पुरुषों के लिए परमात्मा शुभ संतानों और शुभ फलों को उत्पन्न करता है ॥३॥

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    विषय

    'वधूयुः - हरिः - मदः ' सोमः

    पदार्थ

    [१] (अव्ये) = अपना रक्षण करनेवाले उत्तम पुरुष में (वधूयुः) = हमारे साथ वेदवाणी रूप वधू को जोड़ने की कामनावाला यह सोम (त्वचि परिपवते) = [त्वच् = touch] प्रभु के सम्पर्क के निमित्त चारों ओर प्राप्त होता है सोम शरीर में व्याप्त होता है, तो यह हमारी बुद्धि को तीव्र करके हमारे साथ वेदज्ञान को जोड़ता है और हमें प्रभु प्राप्ति के योग्य बनाता है। [२] (ऋतंयते) = ऋत की ओर चलनेवाले पुरुष के लिये, सब कार्यों को ऋत के अनुसार करनेवाले के लिए, यह सोम (अदितेः) = उस अदीना देवमाता के (नप्ती:) = सन्तानों को (श्रथ्नीते) = हमारे साथ बाँधता है [ श्रन्थनं - binding] । यह वेदज्ञान ही अदीना देवमाता है। 'आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्' ये इसके सन्तान हैं। सोम इन सातों को हमारे साथ सम्बद्ध करता है, हमारे जीवन में इन्हें गूँथ देता है । [३] (हरिः) = यह सब रोगों का हरण करनेवाला सोम (अक्रान्) = हमारे शरीर में गति करता है । (यजतः) = यह सोम संगन्तव्य होता है। (संयतः) = शरीर में सम्यक् यत [काबू] हुआ हुआ (मदः) = उल्लास का जनक होता है । (नृभ्णा शिशानः) = हमारे बलों को तीक्ष्ण करता हुआ यह सोम (महिषः न) = अत्यन्त महनीय वस्तु के समान शोभते शोभा को प्राप्त होता है। सब से अधिक महनीय वस्तु सोम ही हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम हमारे साथ वेदज्ञान को जोड़ता है । वेदज्ञान द्वारा हमें 'आयु-प्राण-प्रजा' आदि रत्नों को प्राप्त कराता है। शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ यह उल्लास का जनक व शक्तिवर्धक होता है ।

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    विषय

    उसकी मन्त्रों द्वारा स्तुति, उसके द्वारा प्रभु की प्राप्ति।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (वधूयुः अव्ये त्वचि परि पवते) वधू की कामना करने वाला पुरुष भेड़ के आवरणकारी बालों के बने आसन पर विराजता है, वह (नप्तीः श्रथ्नीते) नाना पुत्रों को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करता है। वह (अदितेः ऋतं यते) अतिथि, माता, पिता वा सूर्य के तेज, पद, अधिकार को प्राप्त करता है। उसी प्रकार (वधूयुः) जगत् को वहन करने वाली ईश्वरी शक्ति का स्वामी परमेश्वर (अन्ये) सर्वव्यापक (त्वचि) सब को आवरण करने वाले, तमोमय ‘प्रधान तत्व’ प्रकृति पर (परि पवते) शक्तिशाली होता है। (नप्तीः) अपने अपत्यों के तुल्य अपने से प्रेम से बंधे जीवों को (श्रथ्नीते) मुक्त कर देता है। तब वह जीव (अदितेः ऋतम्) अखण्ड परमेश्वर के सत्य ज्ञानमय स्वरूप को (यते) प्राप्त होता है। (यजतः हरिः) सब से उपासना करने योग्य प्रभु और ईश्वर की उपासना करने वाला भक्त (हरिः) दुःखों का हरण करने वाला, (संयतः) सम्यक् यत्नशील और (मदः) अति हर्षयुक्त होकर (अक्रान्) सब को पार कर जाता है। सब से उत्कृष्ट होकर रहता है। वह (महिषः न) महान् पुरुष के समान (नृम्णा) अपने बड़े २ ऐश्वर्यो को (शिशीते) ताण करता, अधिक शक्तिशाली करता हुआ (शोभते) शोभा को प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, ५ पादनिचृज्जगती। २—४, ६ जगती। ७, ८ निचृज्जगती। ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The stream of soma joy flows in the protected heart of the dedicated celebrant, attenuates the extrovert natural tendencies of the mind and augments the inner concentration of the higher mind for the man of natural truth and divine law. And Hari, divine lord controller of agitation and dispeller of darkness, intensifies the controlled flow of the yogi’s joy in communion and, deepening and directing it on the fixed target, shines like a victor with divine strength and glory.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पुरुष संयमी बनून निष्काम यज्ञ करतात त्या पुरुषांना परमात्मा शुभ संतान व शुभ फल देतो. ॥३॥

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