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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 69/ मन्त्र 6
    ऋषिः - हिरण्यस्तूपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    सूर्य॑स्येव र॒श्मयो॑ द्रावयि॒त्नवो॑ मत्स॒रास॑: प्र॒सुप॑: सा॒कमी॑रते । तन्तुं॑ त॒तं परि॒ सर्गा॑स आ॒शवो॒ नेन्द्रा॑दृ॒ते प॑वते॒ धाम॒ किं च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्य॑स्यऽइव । र॒श्मयः॑ । द्र॒व॒यि॒त्नवः॑ । म॒त्स॒रासः॑ । प्र॒ऽसुपः॑ । सा॒कम् । ई॒र॒ते॒ । तन्तु॑म् । त॒तम् । परि॑ । सर्गा॑सः । आ॒शवः॑ । न । इन्द्रा॑त् । ऋ॒ते । प॒व॒ते॒ । धाम॑ । किम् । च॒न ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यस्येव रश्मयो द्रावयित्नवो मत्सरास: प्रसुप: साकमीरते । तन्तुं ततं परि सर्गास आशवो नेन्द्रादृते पवते धाम किं चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्यस्यऽइव । रश्मयः । द्रवयित्नवः । मत्सरासः । प्रऽसुपः । साकम् । ईरते । तन्तुम् । ततम् । परि । सर्गासः । आशवः । न । इन्द्रात् । ऋते । पवते । धाम । किम् । चन ॥ ९.६९.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 69; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मत्सरासः) सर्वाह्लादकः (प्रसुपः) सर्वाधाररूपः परमात्मा (ततं तन्तुम्) विस्तृतप्रकृतितन्तुना (साकम्) सह (ईरते) गच्छति। ततः (आशवः) गत्वर्यः (सर्गासः) सृष्टयः (सूर्यस्य रश्मय इव) रविकिरणा इव (द्रावयित्नवः) स्यन्दनशीला उत्पद्यन्ते। पूर्वोक्तः परमात्मा (इन्द्रादृते) उद्योगिनो विना (किं चन धाम) अन्यदीयान्तःकरणं (न पवते) न पवित्रयति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मत्सरासः) सर्वाह्लादक (प्रसुपः) सबका निवासस्थान परमात्मा (ततं तन्तुं) विस्तृत प्रकृतिरूप तन्तु के (साकं) साथ (ईरते) गति करता है। उससे (आशवः) गमनशील (सर्गासः) सृष्टियें (सूर्यस्य रश्मय इव) सूर्य की किरणों के समान (द्रवयित्नवः) क्षरणशील उत्पन्न होती हैं। उक्त परमात्मा (इन्द्रात् ऋते) उद्योगी के अतिरिक्त (किं चन धाम) अन्य किसी के अन्तःकरण को (न पवते) नहीं पवित्र करता है ॥६॥

    भावार्थ

    उक्तगुणसंपन्न परमात्मा के द्वारा सूर्य की रश्मियों के समान अनन्त प्रकार की सृष्टियें उत्पन्न होती हैं ॥६॥

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    विषय

    सूर्यस्य रश्मयः इव

    पदार्थ

    [१] (सर्गासः) = सृज्यमान सोम (सूर्यस्य रश्मयः इव) = सूर्य की किरणों की तरह (द्रावयित्नवः) = अज्ञानान्धकार को दूर भगानेवाले हैं। (मत्सरासः) = आनन्द का संचार करनेवाले हैं। (प्रसुपः) = शत्रुओं को सुलानेवाले हैं। ये सोमकण (साकम्) = युगपत्, साथ-साथ (ततं तन्तुम्) = विस्तृत तन्तु निर्मित वस्त्र को (परिईरते) = हमारे चारों ओर प्रेरित करते हैं । हमें गत मन्त्र में वर्णित 'अमृक्त, रुशत् वासस्' से आच्छादित करते हैं। सोमकणों के वस्त्र से आच्छादित हुए हुए हम रोगों व वासनाओं से बचे रहते हैं । [२] (आशवः) = ये शीघ्रता से हमें कार्यों में व्याप्त करनेवाले सोम (इन्द्रात् ऋते) = जितेन्द्रिय पुरुष को छोड़कर (किञ्चन धाम न पवते) = किसी अन्य स्थान में नहीं प्राप्त होते। इन सोम कणों के रक्षण के लिये जितेन्द्रियता आवश्यक है। जितेन्द्रिय पुरुष ही इनका पात्र बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - जितेन्द्रियता के होने पर सोम का रक्षण होता है। रक्षित सोम सूर्यरश्मियों के समान अन्धकार को दूर करनेवाला व हमारे जीवनों में आनन्द का संचार करनेवाला है ।

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    विषय

    सूर्य की रश्मियों के तुल्य जगत् की पालक शक्तियों का महान् कार्य। (

    भावार्थ

    (सूर्यस्य रश्मयः इव) सूर्य की रश्मियों के सदृश उज्ज्वल, (द्वावयित्नवः) द्रुत गति से जाने वाले, (मत्सरासः) सबको सुख, हर्षं देने वाले, (प्र-सुपः) शत्रुओं को नाश कर भूमि पर सुला देने वाले वा सबको सुख की नींद सुलाने वाले, सुखप्रद (आशवः) अति वेगवान् (सर्गासः) जगत् को रचने वाले, जलों के समान (ततं तन्तुं) इस विस्तृत जगन्मय पट को (साकम्) एक साथ (ईरते) सञ्चालित करते हैं। (इन्द्रात् ऋते) इस महैश्वर्यवान् प्रभु के सिवाय (किम् चन धाम न पवते) कोई भी लोक गति नहीं कर सकता। वे सब सूर्य की रश्मियों के तुल्य उसी के हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, ५ पादनिचृज्जगती। २—४, ६ जगती। ७, ८ निचृज्जगती। ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The dynamics of the lord’s creation instantly in motion, energising the sleeping existences, joyous and joyously moving everything to ecstatic being, all together move across the web of life conceived and created by the lord omnipotent, Indra. Not without Indra does any particle, any wave, any world, move pure and sacred as it is.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आल्हादक व सर्वांचे वसतिस्थान असलेल्या परमेश्वराद्वारे सूर्य रश्मीप्रमाणे अनंत प्रकारची सृष्टी उत्पन्न होते. ॥६॥

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