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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 69/ मन्त्र 4
    ऋषिः - हिरण्यस्तूपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    उ॒क्षा मि॑माति॒ प्रति॑ यन्ति धे॒नवो॑ दे॒वस्य॑ दे॒वीरुप॑ यन्ति निष्कृ॒तम् । अत्य॑क्रमी॒दर्जु॑नं॒ वार॑म॒व्यय॒मत्कं॒ न नि॒क्तं परि॒ सोमो॑ अव्यत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒क्षा । मि॒मा॒ति॒ । प्रति॑ । य॒न्ति॒ । धे॒नवः॑ । दे॒वस्य॑ । दे॒वीः । उप॑ । य॒न्ति॒ । निः॒ऽकृ॒तम् । अति॑ । अ॒क्र॒मी॒त् । अर्जु॑नम् । वार॑म् । अ॒व्यय॑म् । अत्क॑म् । न । नि॒क्तम् । परि॑ । सोमः॑ । अ॒व्य॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उक्षा मिमाति प्रति यन्ति धेनवो देवस्य देवीरुप यन्ति निष्कृतम् । अत्यक्रमीदर्जुनं वारमव्ययमत्कं न निक्तं परि सोमो अव्यत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उक्षा । मिमाति । प्रति । यन्ति । धेनवः । देवस्य । देवीः । उप । यन्ति । निःऽकृतम् । अति । अक्रमीत् । अर्जुनम् । वारम् । अव्ययम् । अत्कम् । न । निक्तम् । परि । सोमः । अव्यत ॥ ९.६९.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 69; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उक्षा) ब्रह्मचर्यादिबलसम्पन्नः पुरुष एव (मिमाति) सर्वज्ञो भवति। तं (निष्कृतम्) परिष्कृतं पुरुषं (धेनवः) इन्द्रियाणि (प्रति यन्ति) प्राप्नुवन्ति  (देवस्य देवी) परमात्मनो दिव्यशक्तयः (उप यन्ति) तमेव प्राप्नुवन्ति। स परत्मात्मैव (अर्जुनम्) वीरयोद्धॄन् (अत्यक्रमीत्) अतिक्रामति। (वारम्) तं सर्ववरणीयम् (अव्ययम्) इन्द्रियविकारहितं (अत्कं न) वर्मेव (निक्तम्) यशसोज्वलं (सोमः) परमात्मा (परि अव्यत) परितो रक्षति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उक्षा) ब्रह्मचर्य आदि बलसंपन्न पुरुष ही (मिमाति) सर्वज्ञाता हो सकता है। उस (निष्कृतं) परिष्कृत पुरुष को (धेनवः) इन्द्रियाँ (प्रति यन्ति) प्राप्त होती हैं। (देवस्य देवी) दिव्य परमात्मा की दिव्य शक्तियाँ (उप यन्ति) उसी को प्राप्त होती हैं। वही (अर्जुनं) बड़े-बड़े योद्धाओं को (अति अक्रमीत्) अतिक्रमण करता है। (वारं) उस सर्ववरणीय (अव्ययं) इन्द्रियविकाररहित (अत्कं न) कवच की तरह (निक्तं) यश से उज्ज्वल को (सोमः) परमात्मा (परि अव्यत) चारों ओर से रक्षा करता है ॥४॥

    भावार्थ

    जो पुरुष ब्रह्मचारी बनकर शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक तीनों प्रकार के बल अपने में उत्पन्न करता है, वह परमात्मा के सामर्थ्य का पात्र होता है ॥४॥

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    विषय

    अत्कं न निक्तम् [दृढ़ कवच के समान]

    पदार्थ

    [१] (उक्षा) = शरीर को शक्ति से सिक्त करनेवाला (सोमः) = सोम (मिमाति) = प्रभु के स्तुति शब्दों का उच्चारण करता है । 'सोम' रक्षित होने पर, रक्षक को प्रभु प्रवण बनाता है। यह सोमी पुरुष प्रभु का स्तवन करता हुआ प्रभु के नामों का जप करता है। ऐसा करने पर (धेनवः) = ज्ञानदुग्ध को देनेवाली ये वेदवाणीरूप गौएँ (प्रतियन्ति) = इसकी ओर आती हैं। (देवस्य) = उस प्रभु की ये (देवी:) = दिव्य वाणियाँ (निष्कृतम्) = सोमरक्षण से संस्कृत हृदयवाले पुरुष को (उपयन्ति) = समीपता से प्राप्त होती हैं । [२] यह सोम (अर्जुनम्) = ज्ञान की वाणियों का अर्जन करनेवाले, (वराम्) = वासनाओं का निवारण करनेवाले, (अव्ययम्) = विविध विषयों की ओर न जानेवाले पुरुष को (अति अक्रमीत्) = अतिशयेन प्राप्त होता है । यह (सोमः निक्तम्) = सोम अत्यन्त शुद्ध व पुष्ट (अत्कं न) = कवच के समान (परि अव्यत) = अपने रक्षक को परितः संवृत कर लेता है। इस सोम के कवच से सुरक्षित पुरुष शारीर व मानस व्याधियाँ व आधियाँ आक्रमण नहीं कर पातीं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से हमें प्रभु की दिव्य वाणियाँ प्राप्त होती हैं । यह सोम अध्ययनशील- विषय व्यावृत्त पुरुष का परिपुष्ट कवच बनता है। उसे रोगों से बचाता है।

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    विषय

    सर्वशासक परमेश्वर।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (उक्षा मिमाति) वीर्य सेचन में समर्थ बिज़ार सांड शब्द करता है और (धेनवः प्रति यन्ति) गौएं आप से आप उसके पास चली जाती हैं। उसी प्रकार जब (उक्षा) कार्य-भार को अपने कन्धों पर उठाने में समर्थ, मेघवत् सुखों के बरसाने वाला प्रभु वा राजा (मिमाति) गर्जनावत् आज्ञा देता, शासन करता है, तब (धेनवः देवीः) उसके ज्ञान-रस का पान करने वाली नाना कामनाओं से युक्त प्राणधारी प्रजाएं (देवस्य) अन्न, ऐश्वर्य, वेतन, भृति, आश्रय आदि देने वाले तेजस्वी प्रभु के (निष्कृतम् उप यन्ति) स्थान को प्राप्त होती हैं, उसकी शरण आती हैं। वह (सोमः) सब जगत् का शासक प्रभु (अर्जुनः) दुष्टों के नाशकारी (अव्ययम्) सब प्रजा के रक्षक वा अविनाशी, (वारम्) दुःखों के वारण करने वाले बल या पद को (अति अक्रमीत्) सबसे अधिक होकर प्राप्त करता है। और वह (निक्तं अत्कं न) अति शुद्ध कवच के समान (अत्कं) अति शुद्ध रूप को (परि अव्यत) धारण करता है। प्रभु वा आत्मा का शुद्ध-बुद्ध रूप है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, ५ पादनिचृज्जगती। २—४, ६ जगती। ७, ८ निचृज्जगती। ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The generous virile soul overflowing with soma joy vibrates with Infinity, the senses having returned inward like cows to the stall. The enlightened mind and thoughts of the holy soul unite with the hallowed centre of the spirit. The soul breaks through its existential cover, returns to its original imperishable purity, and Soma protects it as a pilgrim cleansed and redeemed.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो पुरुष ब्रह्मचारी बनून शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक तीन प्रकारचे बल स्वत:मध्ये उत्पन्न करतो. तो परमात्म्याच्या सामर्थ्याचे पात्र बनतो. ॥४॥

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