ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 69/ मन्त्र 5
ऋषिः - हिरण्यस्तूपः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
अमृ॑क्तेन॒ रुश॑ता॒ वास॑सा॒ हरि॒रम॑र्त्यो निर्णिजा॒नः परि॑ व्यत । दि॒वस्पृ॒ष्ठं ब॒र्हणा॑ नि॒र्णिजे॑ कृतोप॒स्तर॑णं च॒म्वो॑र्नभ॒स्मय॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअमृ॑क्तेन । रुश॑ता । वास॑सा । हरिः॑ । अम॑र्त्यः । निः॒ऽनि॒जा॒नः । परि॑ । व्य॒त॒ । दि॒वः । पृ॒ष्ठम् । ब॒र्हणा॑ । निः॒ऽनिजे॑ । कृ॒त॒ । उ॒प॒ऽस्तर॑णम् । च॒म्वोः॑ । न॒भ॒स्मय॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अमृक्तेन रुशता वाससा हरिरमर्त्यो निर्णिजानः परि व्यत । दिवस्पृष्ठं बर्हणा निर्णिजे कृतोपस्तरणं चम्वोर्नभस्मयम् ॥
स्वर रहित पद पाठअमृक्तेन । रुशता । वाससा । हरिः । अमर्त्यः । निःऽनिजानः । परि । व्यत । दिवः । पृष्ठम् । बर्हणा । निःऽनिजे । कृत । उपऽस्तरणम् । चम्वोः । नभस्मयम् ॥ ९.६९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 69; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अमर्त्यः हरिः) मरणधर्मरहितः परमात्मा तथा (निर्णिजानः) शुद्धः (अमृक्तेन रुशता) स्वकीयस्वाभाविकतेजसा (वाससा) स्वशक्तिरूपाच्छादनेन (दिवः पृष्ठम्) द्युलोकपृष्ठं यत् (चम्वोः नभस्मयम्) द्यावापृथिव्योः (कृतोपस्तरणं) परिकल्पितान्तरिक्ष- रूपोपस्करणं तत् (बर्हणा) स्वीयप्रकृतिपुच्छेन (निर्णिजे) पुष्णाति। अथ च (परि व्यत) ब्रह्माण्डमिमं सर्वत आच्छादयति ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अमर्त्यः हरिः) अमरणधर्मा परमात्मा तथा (निर्णिजानः) शुद्ध (अमृक्तेन रुशता) अपने स्वाभाविक तेज से (वाससा) अपनी शक्तिरूपी आच्छादन द्वारा (दिवः पृष्ठं) द्युलोक के पृष्ठ को जिसमें (चम्वोः नभस्मयं) द्युलोक की और पृथिवीलोक की (कृतोपस्तरणं) अन्तरिक्षरूपी बिछौना है, उसको (बर्हणा) अपनी प्रकृतिरूपी पुच्छ से (निर्णिजे) पुष्ट करता है और (परि व्यत) सब ओर से इस ब्रह्माण्ड को आच्छादित करता है ॥५॥
भावार्थ
अजरामरादिभावयुक्त परमात्मा अपने प्रकृतिरूपी बर्हिष् से सब संसार को आच्छादित किये हुए है ॥५॥
विषय
अमृक्त रुशत् वासस्
पदार्थ
[१] (हरि:) = दुःखों का हरण करनेवाला (अमर्त्यः) = रोगों से न मरने देनेवाला (निर्णिजान:) = हमारे जीवन को पवित्र व पुष्ट करता हुआ यह सोम हमें (अमृक्तेन) = अहिंसित (रुशता) = चमकते हुए (वाससा) = ज्ञान के वस्त्र से (परिव्यत) = परितः आच्छादित करता है। [२] यह सोम (बर्हणा) = वासनाओं के उद्धर्हण के द्वारा (दिवः पृष्ठम्) = मस्तिष्क रूप द्युलोक के पृष्ठ को [surface को] (निर्णिजे कृत) = शोधन के लिये करता है। मस्तिष्क को दीप्त करनेवाला होता है। यह सोम (चम्वोः) = द्यावापृथिवी के, मस्तिष्क व शरीर के (नभस्मयम्) = [ नभस् - water, आप:- रेतः] रेतःकणों से बने हुए(उपस्तरणम्) = आच्छादन को करता है रेतः कणों से बना हुआ आच्छादन शरीर को रोगों के आक्रमण से बचाता है और मस्तिष्क को (तामस) = अन्धकार से आवृत नहीं होने देता । वस्तुतः सोम इन रेतः कणों के द्वारा शरीर को नीरोग व मस्तिष्क को दीप्त बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ–सोम हमारा आच्छादन बनता है। इससे हमारे पर न रोगों का आक्रमण होता है और न अज्ञानजनित कुविचारों का ।
विषय
सर्वदुःखहारी प्रभु।
भावार्थ
वह (अमर्त्यः) मरणधर्मा जीवों से वा देहों से भिन्न, अविनाशी, (निः-निजानः) सर्वथा शुद्ध रूप है। वह (हरिः) सब दुःखों का हरण करने वाला होकर (रुशता) कान्तिमय (अमृक्तेन) सबसे अधिक शुद्ध, अति अलंकृत (वाससा) विभूतिमय, तेजोमय बाह्य रूप से (परि व्यत) सर्वत्र व्याप्त है। वह (बर्हणा) बृहत् महान् (दिवः पृष्ठम्) सूर्य के पृष्ठ को और (चम्बोः) आकाश और भूमि के (नभस्मयम्) आकाश, सूर्य तेज या मेघमय (उप-स्तरणम्) आच्छादक आवरण को (निः-निजे कृत) सबको शुद्ध करने वा प्रकाश देने के लिये बनाता है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, ५ पादनिचृज्जगती। २—४, ६ जगती। ७, ८ निचृज्जगती। ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The saviour, destroyer of suffering and darkness, cleansing and sanctifying existence with imperishable light of his glory, pervades, transcends and beatifies the top of heaven and the middle regions of vapour between earth and heaven, vesting them all with his splendour.
मराठी (1)
भावार्थ
अजर, अमर इत्यादी भावयुक्त परमेश्वराने आपल्या प्रकृतीरूपी हर्षाने सर्व जगाला आच्छादित केलेले आहे. ॥५॥
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