ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 69/ मन्त्र 3
अव्ये॑ वधू॒युः प॑वते॒ परि॑ त्व॒चि श्र॑थ्नी॒ते न॒प्तीरदि॑तेॠ॒तं य॒ते । हरि॑रक्रान्यज॒तः सं॑य॒तो मदो॑ नृ॒म्णा शिशा॑नो महि॒षो न शो॑भते ॥
स्वर सहित पद पाठअव्ये॑ । व॒धू॒ऽयुः । प॒व॒ते॒ । परि॑ । त्व॒चि । श्र॒थ्नी॒ते । न॒प्तीः । अदि॑तेः । ऋ॒तम् । य॒ते । हरिः॑ । अ॒क्रा॒न् । य॒ज॒तः । स॒म्ऽय॒तः । मदः॑ । नृ॒म्ना । शिशा॑नः । म॒हि॒षः । न । शो॒भ॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अव्ये वधूयुः पवते परि त्वचि श्रथ्नीते नप्तीरदितेॠतं यते । हरिरक्रान्यजतः संयतो मदो नृम्णा शिशानो महिषो न शोभते ॥
स्वर रहित पद पाठअव्ये । वधूऽयुः । पवते । परि । त्वचि । श्रथ्नीते । नप्तीः । अदितेः । ऋतम् । यते । हरिः । अक्रान् । यजतः । सम्ऽयतः । मदः । नृम्ना । शिशानः । महिषः । न । शोभते ॥ ९.६९.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 69; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
विषय - उसकी मन्त्रों द्वारा स्तुति, उसके द्वारा प्रभु की प्राप्ति।
भावार्थ -
जिस प्रकार (वधूयुः अव्ये त्वचि परि पवते) वधू की कामना करने वाला पुरुष भेड़ के आवरणकारी बालों के बने आसन पर विराजता है, वह (नप्तीः श्रथ्नीते) नाना पुत्रों को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करता है। वह (अदितेः ऋतं यते) अतिथि, माता, पिता वा सूर्य के तेज, पद, अधिकार को प्राप्त करता है। उसी प्रकार (वधूयुः) जगत् को वहन करने वाली ईश्वरी शक्ति का स्वामी परमेश्वर (अन्ये) सर्वव्यापक (त्वचि) सब को आवरण करने वाले, तमोमय ‘प्रधान तत्व’ प्रकृति पर (परि पवते) शक्तिशाली होता है। (नप्तीः) अपने अपत्यों के तुल्य अपने से प्रेम से बंधे जीवों को (श्रथ्नीते) मुक्त कर देता है। तब वह जीव (अदितेः ऋतम्) अखण्ड परमेश्वर के सत्य ज्ञानमय स्वरूप को (यते) प्राप्त होता है। (यजतः हरिः) सब से उपासना करने योग्य प्रभु और ईश्वर की उपासना करने वाला भक्त (हरिः) दुःखों का हरण करने वाला, (संयतः) सम्यक् यत्नशील और (मदः) अति हर्षयुक्त होकर (अक्रान्) सब को पार कर जाता है। सब से उत्कृष्ट होकर रहता है। वह (महिषः न) महान् पुरुष के समान (नृम्णा) अपने बड़े २ ऐश्वर्यो को (शिशीते) ताण करता, अधिक शक्तिशाली करता हुआ (शोभते) शोभा को प्राप्त होता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - हिरण्यस्तूप ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, ५ पादनिचृज्जगती। २—४, ६ जगती। ७, ८ निचृज्जगती। ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
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