ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 69/ मन्त्र 4
उ॒क्षा मि॑माति॒ प्रति॑ यन्ति धे॒नवो॑ दे॒वस्य॑ दे॒वीरुप॑ यन्ति निष्कृ॒तम् । अत्य॑क्रमी॒दर्जु॑नं॒ वार॑म॒व्यय॒मत्कं॒ न नि॒क्तं परि॒ सोमो॑ अव्यत ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒क्षा । मि॒मा॒ति॒ । प्रति॑ । य॒न्ति॒ । धे॒नवः॑ । दे॒वस्य॑ । दे॒वीः । उप॑ । य॒न्ति॒ । निः॒ऽकृ॒तम् । अति॑ । अ॒क्र॒मी॒त् । अर्जु॑नम् । वार॑म् । अ॒व्यय॑म् । अत्क॑म् । न । नि॒क्तम् । परि॑ । सोमः॑ । अ॒व्य॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उक्षा मिमाति प्रति यन्ति धेनवो देवस्य देवीरुप यन्ति निष्कृतम् । अत्यक्रमीदर्जुनं वारमव्ययमत्कं न निक्तं परि सोमो अव्यत ॥
स्वर रहित पद पाठउक्षा । मिमाति । प्रति । यन्ति । धेनवः । देवस्य । देवीः । उप । यन्ति । निःऽकृतम् । अति । अक्रमीत् । अर्जुनम् । वारम् । अव्ययम् । अत्कम् । न । निक्तम् । परि । सोमः । अव्यत ॥ ९.६९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 69; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
विषय - सर्वशासक परमेश्वर।
भावार्थ -
जिस प्रकार (उक्षा मिमाति) वीर्य सेचन में समर्थ बिज़ार सांड शब्द करता है और (धेनवः प्रति यन्ति) गौएं आप से आप उसके पास चली जाती हैं। उसी प्रकार जब (उक्षा) कार्य-भार को अपने कन्धों पर उठाने में समर्थ, मेघवत् सुखों के बरसाने वाला प्रभु वा राजा (मिमाति) गर्जनावत् आज्ञा देता, शासन करता है, तब (धेनवः देवीः) उसके ज्ञान-रस का पान करने वाली नाना कामनाओं से युक्त प्राणधारी प्रजाएं (देवस्य) अन्न, ऐश्वर्य, वेतन, भृति, आश्रय आदि देने वाले तेजस्वी प्रभु के (निष्कृतम् उप यन्ति) स्थान को प्राप्त होती हैं, उसकी शरण आती हैं। वह (सोमः) सब जगत् का शासक प्रभु (अर्जुनः) दुष्टों के नाशकारी (अव्ययम्) सब प्रजा के रक्षक वा अविनाशी, (वारम्) दुःखों के वारण करने वाले बल या पद को (अति अक्रमीत्) सबसे अधिक होकर प्राप्त करता है। और वह (निक्तं अत्कं न) अति शुद्ध कवच के समान (अत्कं) अति शुद्ध रूप को (परि अव्यत) धारण करता है। प्रभु वा आत्मा का शुद्ध-बुद्ध रूप है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - हिरण्यस्तूप ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, ५ पादनिचृज्जगती। २—४, ६ जगती। ७, ८ निचृज्जगती। ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
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