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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 81 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 81/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसुर्भारद्वाजः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अच्छा॒ हि सोम॑: क॒लशाँ॒ असि॑ष्यद॒दत्यो॒ न वोळ्हा॑ र॒घुव॑र्तनि॒र्वृषा॑ । अथा॑ दे॒वाना॑मु॒भय॑स्य॒ जन्म॑नो वि॒द्वाँ अ॑श्नोत्य॒मुत॑ इ॒तश्च॒ यत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अच्छ॑ । हि । सोमः॑ । क॒लशा॑न् । असि॑स्यदत् । अत्यः॑ । न । वोळ्हा॑ । र॒घुऽव॑र्तनिः । वृषा॑ । अथ॑ । दे॒वाना॑म् । उ॒भय॑स्य । जन्म॑नः । वि॒द्वान् । अ॒श्नो॒ति॒ । अ॒मुतः॑ । इ॒तः । च॒ । यत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अच्छा हि सोम: कलशाँ असिष्यददत्यो न वोळ्हा रघुवर्तनिर्वृषा । अथा देवानामुभयस्य जन्मनो विद्वाँ अश्नोत्यमुत इतश्च यत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अच्छ । हि । सोमः । कलशान् । असिस्यदत् । अत्यः । न । वोळ्हा । रघुऽवर्तनिः । वृषा । अथ । देवानाम् । उभयस्य । जन्मनः । विद्वान् । अश्नोति । अमुतः । इतः । च । यत् ॥ ९.८१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 81; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (सोमः) वह सर्व संचालक, बलस्वरूप सर्वोत्पादक परम वीर्य सोम (कलशान् अच्छ असिष्यदत्) कलशवत् देहों, भीतरी कोशों और समस्त लोकों के प्रति प्राप्त होता है, (वोढा अत्यः न) पीठ पर उठाकर ले जाने वाले अश्व के समान वह जगत् भर को वहन या धारण करने वाला (अत्यः) सर्वव्यापक प्रभु (रघुवर्त्तनिः) वेग से समस्त सूर्यादि लोकों को घुमाने में समर्थ (वृषा) बलशाली है। (अथ) और वह (देवानाम्) तेजोमय, सूर्यादि और कर्मफल के आकांक्षी जीवों या प्राणों के बीच में विद्वान्, ज्ञानवान् होकर (यत्) जो (अमुतः) उस परलोक से इस लोक में आने और (इतः च) इस लोक से उस लोक में जन्म लेने रूप दोनों जन्मों को (विद्वान्) जानता और प्राप्त करता हुआ दोनों को (अश्नोति) व्यापता है। वह ही आत्मा ‘सोम’ है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसुर्भारद्वाज ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः–१—३ निचृज्जगती। ४ जगती। ५ निचृत्त्रिष्टुप्॥

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